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________________ वि .] । जो इसे जानने की कोशिश करते हैं। जितने के सहारे ही अपनी जीवन-नौकाको चलाते हुए भागे है जो जानकर इसपर भद्धा लाते है ! कितने है जो चले जारहे हैं। इन्होंने दुःखकी समस्या समझने, सुख भद्धा लाकर इस पर चलते हैं ? कितने है जो चलकर का रहस्य मालूम करने, वर्तमान दशासे दूर लखाने, इष्टका माक्षात् करते हैं, मनोरथमें सफल होते है, दुःख वर्तमान जीवनसे मिल जीवनको लक्ष्य करने, रूढिक के विजेता होते हैं? मार्गको छोड़ अन्य मार्गको अपनाने की शक्तिका ही लोप बहुत विरले, कुछ गिने चुने मनुष्य-जो जीवन- कर दिया है। इन धर्मतत्त्वको समझने, धर्मतत्त्वमें लोकके उत्तङ्ग शिखर कहला सकते है ।। शेष समस्त श्रद्धा लाने, धर्म-मार्ग पर भासद होनेका सामर्थ्य ही जीवन-लोक पहाड़ी घाटियों के समान अन्धकारसे व्याप्त प्रास नहीं है । मनुष्य-जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें है, पहाड़ी नदियों के समान शीघ्रतासे संसार-सागरकी दुःखानुभूतिके साथ दु:खसुखके रहस्यको समझने, ओर चला जा रहा है। उनके. कारणोंको मालूम करने, एक लक्ष्यको बोर ___ यह क्यों ? क्या शेष जीवन-शोक दुःखका अनुभव दुसरेको लक्ष्य बनाने एक मार्गको त्याग दूसरेको ग्रहण नहीं करता ? दुःखसे छुटकारा नहीं चाहता ! शेष करनेकी ताकत मौजूद है । मनुष्य जीवन ही हेयोपादेय जीवन-लोक दुःखका अनुभव ज़रूर करता है, दुःखसे बुद्धि, तर्क वितर्क-शक्ति उद्यम पुरुषार्थका क्षेत्र है।। छुटकारा भी चाहता है। परन्तु वह दुःखसे अपना मनुष्यभवमें ही धर्म-साधना सम्भव है । उद्धार करने में असमर्थ है । मनुष्यको छोड़कर समस्त ___जब मनुष्य-भवमें धर्मसाधना सम्भव है, तो मनुनप्राणियोंका जीवन-समस्त एकेन्द्रियलोक समस्त वनस्पति में धर्म-साधना क्यों नहीं ? मनुष्यका जीवन सुखी क्यों लोक, समस्त विकलेन्द्रिय लोक, समस्त पशुपक्षिलोक नहीं? सफल क्यों नहीं १ कृतार्थ क्यों नहीं मनुष्यगाढ़ अन्धकारसे ढका है, मोहसे ज्यात है, भय और जीवनमें भी इतना संवेश क्यों ? इतनी दुःख पीड़ा, दुःखसे ग्रस्त है । इन पर भयने, दुःखने इतना काबू क्यों इतना भेद भाव क्यों ? इतना संघर्ष क्यों ? पाया है कि यह भय और भयके कारणोंकी ओर, दुःख । निस्सन्देह मनुष्य-भवमें ही धर्मसाधना सम्भव है और दुःखके कारणों की ओर लखानेसे भी भयभीत है। इसीलिये यह उनकी ओरसे मुंह फेर कर रह गये है, ज परन्तु समस्त मनुष्य धर्म साधनाके योग्य नहीं, धर्मके आँख मूंदकर रह गये है, शान रोक कर रह गये हैं। । अधिकारी नहीं। इनमें से बहुतसे तो नाममात्रके ही मनुष्य है । प्राकृतिको छोड़कर वे शील शक्ति, प्राचार इसीलिये इनकी शानशक्ति, देखने भाननेकी शक्ति, ___ व्यवहार में पशु समान ही है, पशु समान ही बुद्धिहीन स्मरण रखनेकी शक्ति, कल्पना करने की शक्ति, सब ही . शानहीन है, जड़ और मूढ़ है। उनके ही समान स्व. आच्छादित होगई , खोईसी हो गई है। इन्होंने दुःख . को प्रोमल करने की चेष्टामें भानको ही प्रोमल कर .. छन्द और अनर्गल गतिसे चलने वाले है। उन्हें दीन दिया है, समस्त जानने वाली चीजोंको ही प्रोमल कर पवास्तिकाव ॥ दिया है, समस्त लोक और प्रात्माको ही प्रोमल कर कार्विवानुमे गोम्मटसार ( पीस) दिया है। ये यन्त्रकी भांति अभ्यस्त संस्कारों, संशात्रों * .प.१...
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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