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अनेकान्त
'[आश्विन वीर निर्वाच सं० २०६६
की प्रति परसे जो कोई असावधान लेखक कापी करे यह उस एक पंक्तिकेापक खाली स्थानको नहीं दोष सकता, और इस तरह फिर उसकी प्रति परसे यह कल्पना भी सहज नहीं होती कि बीचका भाग किसी तरह छूट गया है।
"इस प्रकार न तो हमें कर्मकाण्ड में अधूरे व लंदूरे पनका अनुभव होता है, न उससे कमी उतनी गाथाके छूट जाने व दूर पर जाने की सम्भावना जंचती है, और न कर्मप्रकृति के गोम्मटसारके कर्ता द्वारा ही रचित होने के कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं । ऐसी अवस्थामें उन गाथाओंके कर्मकाण्ड में शामिल कर देनेका प्रस्ताव हमें बड़ा साहसिक प्रतीत होता है ।"
अब मैं प्रोफेसर साहबकी उक्त तीनों बातों पर संक्षेप में विचार करता हुआ कुछ विशेष प्रकाश डालता हूँ और उसके द्वारा यह बतखाना चाहता हूँ कि प्रो० माहवका विचार इस विषय में ठीक नहीं हैः-
१ ) पश्चात् के लिपिकारों द्वारा ७५ गाथाओंका मूलग्रंथसे छूट जाना कोई असंभव नहीं है । जिन विद्वानोंको प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथ-प्रतियोंको देखनेका अवसर मिला है ये इन लिपिकारोंकी कर्तृतसे मली भाँति परिचित है, और अनेक बार उस पर प्रकाश डालते रहते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजी के 'सत्य शासन-परीक्षा' विषयक लेख भी मिलता है, जो अनेकान्तकी गत ११वीं किरच में ही प्रकाशित हुआ है। इस लेख में उन्होंने लेखमें यह स्पष्टरूपसे प्रकट किया है कि ग्रंथमें 'शब्दाद्वैत' की परीक्षाका पूरा प्रकरण छूटा हुआ है, 'पुरुषाद्वैत' की समाप्ति पर एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़कर 'विज्ञा. नाईत' की परीक्षा प्रारम्भ कर दीगई है, जब कि दोनों के मध्य में मप्र राजाईत' की परीक्षा होना चाहिये थी। धारा की जिस प्रति परसे उन्होंने परिचय दिया है उसमें एक पंकिके करीब जो स्थान छुटा हुआ है वह इस बातको सूचित करता है कि मध्यका भाग नहीं लिखा जा सका, जिसका कारण उस अंशके पत्रोंका त्रुटित हो जाना आदि ही हो सकता है। आरा
प्रोफेसर साहबने यह लिखा है कि - "यदि लिपिकारों के प्रमादमे वे ( गाथाएँ) छूट गई होतीं तो टीकाकार अवश्य उस ग़लतीको पकड़ कर उन गाथाओं को यथास्थान रख देते, और यदि वे प्रसंगके लिये अत्यन्त आवश्यक थीं तो वे जान बूझकर तो उन्हें छोड़ ही नहीं सकते थे ।" यह ठीक है कि कोई टीकाकार जान बूझकर ऐसा नहीं कर सकता, परन्तु यदि उस टीकाकार को टीकामे पहले ऐसी ही मूल ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई हो जिसमें उक्त गाथाएँ न हों और त्रुटित गाथाओंको मालूम करनेका उसके पास कोई साधन भी न हो तो फिर वह टीकाकार उन त्रुटित गाथाओं की पूर्ति कैसे कर सकता है ? फिर भी, कर्मकाण्ड के प्रस्तुत टीकाकारने उन गाथाओं के विषयी पूर्ति अन्य ग्रन्थों परले की है और उस पूर्ति परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह वहां उस विषयको त्रुटित समझता था; क्योंकि उसका वह कथन प्रकृत गाथाकी व्याख्या न होकर कथनका पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने की दृष्टिको जिये हुए है। यदि मूल ग्रंथमें कथन सुसम्बद्ध होता तो संस्कृत टीकाकार के लिये त्रुटित गाथाओं वाले विषयको अपनी काम देने की कोई जरूरत नहीं थी।
एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषयको और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। और वह यह है कि श्री अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य दोनोंने 'समय-सार' तथा 'प्रवचन-सार' की टीकाएँ लिखी हैं, जिनमेंसे अमृतचन्द्र की टीकाएँ पहलेकी बनी हुई हैं। परन्तु दोनों प्राचार्यों