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________________ १५० भनेकान्त [मार्गशीर्ष, वीर निवाब सं०२४१६ रिक्त पाचात्य दर्शनों के सम्बन्धमें आपका शान बहुत निदर्शनमें जो उद्गार प्रगट किये हैं उनमेंसे प्रावश्यक विशाल है अतएव आपका लेखन तुलनात्मक और अंश नीचे उद्धृत किया जाता हैतलस्पर्शी होता है। आपके लिखे हुए भारतीय दर्शनसमूहे जैनदर्शनेर स्थान, ईश्वर, जीव, कर्म, षड्व्य - "श्रीयुक्त हरिसत्य भट्टाचार्य घणां वर्ष अगाऊ अोरीधर्म अधर्म, पुद्गल, काल, आकाश इत्यादि निबंध एटल कॉन्फरेन्सना प्रथम अधिवेशन प्रसंगे पनामा मलेलाइसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। आपके इन निबन्धोंमेंसे प्रथम तेवखतेज तेमना परिचयथी मारा उपर एटली छाप पडेली निबंधका गुजराती अनुवाद जब मेरे अवलोकनमें आया के एक बंगाली अने ते पण जैनेतर होवाछता जैनतभीसे आपसे मिलकर आपके लिखे अन्य सब निबंधों- साहित्य विषे जे अनन्य रस धरावे छे ते नवयुगनी को प्राप्त करनेको उत्कंठा हुई; पर पता ज्ञात न होनेसे जिज्ञासानुं जीवतुं प्रमाण छ । तेमणे "रनाकरावतारिका" वैसा शीघ्र ही न बन सका । बहुत प्रयत्न करने पर नो अँग्रेज़ी करेलो तेने तपासी अने छपावी देवो एवी बाब छोटेलालजी जैनसे आपका पता ज्ञात हुआ और एमनी इच्छा हती, ए अनुवाद अमे छपावी तो न मैं बाब हरषचन्द्रजी बोथराके साथ आपसे मिला । वार्ता- शक्या पण अमारी एटली खात्री यइ के भट्टाचार्यजीलाप होनेपर ज्ञात हुआ कि करीब २५ वर्ष पूर्वसे श्राप ए श्रा अनुवाद माँ खूब महेनत करी छे । अने ते द्वारा जैनग्रंथोंका अध्ययन व लेखन-कार्य कर रहे हैं, पर उन- तेमने जैनशास्त्रना हृदयनो स्पर्श करवानी एक सरस के लिखित ग्रंथों के प्रकाशनकी कोई सुव्यवस्था न होनेसे तक मली छ । त्यारबाद एटलो वर्षे ज्यारे तेमना बंगाली इधर कई वर्षोंसे उन्हें लिखना बंद कर देना पड़ा । जैन लेखोना अनुवादों में वांच्या त्यारे ते वखते भट्टाचार्यजी समाजके लिये यह कितने दुखका विषय है कि ऐसे विषे मैं जे धारणा बांधेली ते वधारे पाकी थई भने साची तुलनात्मक गंभीर लेखकको प्रकाशन-प्रबन्ध न होनेसे पण सिद्ध थइ । श्रीयुक्त भट्टाचार्य जी ए जैनशास्त्र नु लिखना बंद करना पड़ा, निरुत्साह होना पड़ा ! वांचन अने परिशीलन लांबा बखत लगी चलावेलु ऐना भट्टाचार्यजीसे वार्तालाप होनेपर ज्ञात हुआ कि उनको परिपाक रुपेज तेमना पा लेखो छे एम कहवु जोइए, जैनधर्म के प्रति हार्दिक श्रादर व भक्ति भाव है, उन्होंने जन्म अने वातावरण थी जैनेतर होवाछता तेमना लेखो यहाँ तक कहा कि यदि प्रबन्ध किया जा सके तो मेरा माँ जे अनेकविध जैन विगतो नी यथार्थ माहितीछे अने विचार तो पाश्चात्य देशोंमें घूम घूमकर जैनधर्मके प्रचार जैन विचारसरणीनो जे वास्तदिक स्पर्श छे, ते तेमना करने का है । एक बंगाली विद्वान के इतने उच्च हार्दिक अभ्यासी अने चोकसाइ प्रधान मानसनी साबीती पुरी पाडे विचार सुनकर किसे प्रानन्द न होगा ? मेरे हृदयमें तो छ । पूर्वीय तेमज पश्चिमीय तत्त्वाचिंतनन् विशालवाचन हमारे समाजकी उपेक्षाको स्मरण कर बड़ी ही गहरी एमनी M. A. डीग्रीने शोभावे तेवुछ अने एमनु चोट पहुँची । क्या जैनसमाज अब भी आँखें नहीं दलिलपूर्वक निरुपण एमनी वकीली वुद्धिनी सादी मा. खोलेगा! पे छ । भट्टाचार्य जीनी श्रा सेवामात्र जैन जनता माज श्रीयुत भट्टाचार्यजीके तलस्पर्शी गहन अध्ययन व नहीं परन्तु जैनदर्शनना जिज्ञासु जैन-जैनेतर सामान्य लेखनके विषयमें पं० सुखलालजीने "जिनवाणी" ग्रंथके जगत मा चिरस्मरणीय बनी रहये।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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