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प्राशा ले०-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. "घनश्याम"]
अपि भाशे ! त जगदाधार।
तेरे बिन सब शून्य जगत है। सभी जगह तब भाव-भगत है । पूर्व कार्यके तू पाजाती। कर्ता को है धीर बंधाती॥
बनाती क्या क्या नये विचार । अयि आशे ! तु जगदाधार ॥
नई उमझोंका युवकोंकी । नई कल्पनाका बालाकी ॥ अभिलाषाका वृद्ध जनोंकी । सुख-निद्राका बाल-गणोंकी ।
हमेशा करती है विस्तार । अयि भाशे ! तू जगदाधार ॥
(२)
भिन्न रूपसे सबके मनमें । भूमण्डलके हृदयस्थलमें । कैसे कैसे काम कराती। भित्र भिन्न परिणाम दिखाती ॥
भिन रखती सबसे व्यवहार । अयि भाशे ! तू जगदाधार ॥
चातककी उस तृषित तानमें । चीणाके सुरमयी गानमें ॥ वकराजके लोम-पाशमें । विरह-विपीड़ित नारि-श्वासमें ॥
सदा तू करती है संचार । अषि प्राशे ! तू जगदाधार ॥
पथिक मार्ग चलता तव बल पर। पतिव्रता रहती निज व्रत पर ।। धर्म, अर्थ औं काम मोक्षके। सब साधन तेरे सँजोगके ।
सभीको देती है साधार। अयि प्राशे ! तू जगदाधार ॥
कभी राज-महलोंमें रहती । कभी गरीबीके दुल सहती ॥ श्रमी कृषकके कभी खेतमें। मई-जूनकी ल गर्मीमें ॥
सुख पाती औ' दुःख अपार । अपि भाशे ! तू जगदाधार ।