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अनेकान्त
[भाद्रपद, बीर निर्वाण सं०२१॥
सापि जीवनोक पोतुं कामोर्ष दिसुगमोक्त्या। दानवीर धनिकोका भी हमारे समा नमें टोटा नहीं है। विल्सी तस्य ने तापमुपकः मेषान् । अब शेष रहे विद्वान लोग । सो-प्राजका जमाना
अर्थ-अन्य बनानेमें यद्यपि अन्तरंग कारण कविका उपयोगितावादका है । किसी बातकी उपयोगिता (श्रावअति विशुद्ध भाव है तथापि उस कारणका भी कारण श्यकता) विज्ञानोपकरणों के द्वारा सिद्ध कर देने पर हो सब जीवोंका उपकार करने वाली साधुस्वभाव वाली लोग उसे अधिकांशमें अपनाने को तैयार होते हैं। हमारे बुद्धि है।॥ ५॥ सम्पूर्ण जनसमूह धर्मको सरलरीतिसे समाजमें ऐसे पंडित ( जो जिनसिद्धांत शास्त्रके जानकार सुनना चाहता है, यह बात सर्व विदित है । उसके लिए हैं.और ऐसे प्रोफेसर भी हैं जो विज्ञानोपकरणोंके जानकार वह प्रयोग (ग्रंथावतार-योजना) श्रेष्ठ है।
हैं, परन्तु ये दोनों महानुभाव मिलकर ही ऐसे ग्रंथका इसी प्रकार पं० टोडरमल जी मोक्षमार्गप्रकाशकमें निर्माण कर सकते हैं, एक एक नहीं । क्योंकि एक लिखते है
दूसरेके विषयका बहुत ही कम जानकार हैं। "करि मंगल करिहों महामन्ध कानको काव। इस प्रकार सामग्री सब मौजूद है । जिस दिन इस बातें मिले समाज सुन पा विजपा राज ॥" उद्देश्यको लेकर पंडितों और प्रोफेसरोंका सम्मेलन हो
५. गोपालदासजीने भी श्री जैनसिद्धान्त-दर्पणमें जायेगा उस दिन ग्रन्थ तैयार हुआ समझिये | जरूरत लिखा है
है ऐस सम्मेलनकी शीघ्र योजना की। गत्वा वीरबिनेन सर्वज्ञमुक्तिमार्गनेतारम् । यदि दस हज़ार रुपये खर्च करके भी हम ऐसा गाव-प्रबोधनाचं वैनं सिदान्त-दर्पणं बो" मूलग्रन्थ (हिन्दी और अंग्रेजीम) तैयार करा सकें तो
प्रस्तु-अब हमें यह देखना है कि गीता-जैसा समझ लेना चाहिये कि वह बहुत ही सस्ता पड़ा। जिनधर्म-विषयक ग्रंथ बनाने और प्रचार करनेके लिये मेरी समझमें यह काम "वीरसेवामन्दिर, सरकिस किस सामग्रीकी श्रावश्यकता है ? वह सामग्री यह है- सावा" के मिपुर्द होगा तो पार पड़ सकेगा। अन्यथा १ जिन-सिद्धान्त-शास्त्र।
नाम भले ही हो जाय, काम होने वाला नहीं । २ विद्वान लोग।
अर्थात्-जो कुछ भी अन्य तंत्रोंमें अच्छी अच्छी ३ पाश्चात्य विज्ञानोपकरणोंकी खरीदारी तथा ग्रंथ
उक्तियाँ दृष्टिगोचर हो रही है वे सब जिनागमसे उठा का लिखाईपाई आदिकालय धना
ली गई है। (राजवातिक) जिनसिद्धान्तशास्त्र के विषयमें दावेके साथ कहा जयति अगति क्लेशावेशप्रपंच-हिमांशुमान् । जा सकता है कि यह सामग्री हमारे पास काफ़ी है ।x वित-विषमैकांत-प्यान्त-प्रमाण-नारामान् ॥ x बल्कि यहाँ तक कहा जाता है कि- पतिपतिरबो यस्यान्यान् मताम्बुनिधर्मवान् ।
सुनिखित कः परतंत्रयुक्तियु, स्वमत-मतवस्तीयां नामा परे समुपासते ॥ स्फुरति पाः काबनसूचिसम्पदः।
अर्थात्-जिनागमके एकएक बिन्दुको लेकर वैष वा पूर्वमहाबोस्थिता, अनेक दार्शनिक अपना अपना मत बखानते हुए उसी बगलामा बिनवाक्यविभुषः । जिनशासनकी उपासना करते हैं।