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________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगंबर 'पंचसंग्रह' कमस्तव और पंचसंग्रह और वह यह किबन्ध न्युच्छिन्न, उदय-व्युच्छिन्न और उदीरणारूप प्रकृतियोंकी संख्या गिनाने के बाद ही श्वेताम्बरीय सम्प्रदायमं 'कर्मस्तव' नामका एक मका एक गाथामें मूल कर्मप्रकृतियोंके पाठ नाम दिये हैं और छोटा सा कर्मविषयक प्रकरण और भी है, जिसके कर्ता १० वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या बताई है, तथा रचनाकालका कोई पता नहीं और निमे द्वितीय जिन सबका वहाँ उस प्रकरण के साथ कोई सम्बन्ध प्राचीन कर्मग्रन्थ के नामसे कहा जाता है । परन्तु इम मालम नहीं होता, ऐमी स्थिति में उक्त प्रकरण किसी प्रकरणका यथार्थ नाम 'बन्धोदय-पत्य-युक्त-स्तव' जान दूसरे ही ग्रन्थ परस सकलित किया गया है और उसका पड़ता है। जैसा कि उनके 'बन्धुदयसंतजुत्तंवोच्छामि संकलनकर्ता मोटी मोटी त्रुटियों के कारण कोई विशेष धयं निसामेह' पदमे मालम होता है । इस प्रकरण बुद्धिमान मालूम नहीं होता । वह दूमरा मन्य जहाँ तक में बन्ध, उदय, उदीरगा और सत्तारूप प्रकृतियों का मैंने अनुमधान किया है, दिगम्बर जैन समाजका मामान्य कथन किया गया है। इसकी कुल गाथासंख्या 'प्राकृत पचसग्रह' जान पड़ता है। उसमें 'बन्धोदय५५ है। परन्तु उक्त प्रकरणमें बंध और उदयादिके सत्व युक्त-स्तव' नामका ही एक तृतीय प्रकरण है, कोई लक्षण या स्वमा निर्देश नहीं किये गये जिनके जिमकी कुल गाथा संख्या ७८ है। इस प्रकरणमें निर्देशकी वहाँ पर निहायत जरूरत थी। और इम मंगलाचरणके बाद बध, उदय, उदीरणा और सत्ताका लिये उसम बध उदयादिके स्वरूपादिक का न होना मामान्य स्वरूप दिखाकर तीन चार गाथाश्री-द्वारा बहुत ग्वट कता है । इतना ही नही, किन्तु ग्रंथकी अप. उनके विषयका कुछ विशेष स्पष्टीकरण किया है। पश्चात् गना और अव्यवस्थाको भी सूचित करना है; क्योंकि उममें यथाक्रम बन्धादिम व्यच्छिन्न होने वाली प्रकृउममें मगलाचरण के बाद एकदम बिना किसी पूर्व नियों का ग्वुलामा कथन किया है और माथमें अंकसम्बन्धके दूसर्ग गाथा में ही बंधमे ब्युच्छिन्न होने वाला महष्टि भी होनम वह विशेष सुगम तथा उपयोगी हो प्रकृतियों की माव्या गुणस्थानक्रमम बनला दी है। गया है। और इस तरहम पचमग्रह का वह प्रकरण इसके भिवाय, उसकी एक बात और मो नरक है मुसम्बद्ध और नामकरण के अनुमार अपने विषयका प्रज्ञाचक्ष पं. सखजालजीने भी द्वितीय कर्म- स्पष्ट विवंचक है। जो बाते श्वनाम्बरीय 'कर्मस्तव' को प्रन्धको प्रस्तावनामें 'ग्रन्थ रचनाका आधार' शीर्षकके देखने म ग्बटकती हैं श्रीर अमंगत जान पड़ती है नीचे 'कर्मस्नव' नामके द्वितीय प्राचीन कर्म ग्रन्थका वे सब यहाँ यथास्थान होने से मुमगन और मुमअसली नाम 'बन्धोदय-सत्व-युक्त स्तव' ही लिखा है। म्बद्ध जान पड़ती हैं । पचसग्रहके इस प्रकरणाकी ५३ देखो, कर्मस्तव नामक द्वितीय ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ०४ गाथाएं साधारणम कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ प्रायः + इमकी मुद्रित मूल प्रतिमें गुणस्थानों के नाम ज्याकी त्या रक्त व. 'कमस्लव' में पाई जाती हैं । वाली दो गाथाओंको शामिल करके गाथा संख्या १७ और पंचमग्रह के प्रकृति समुत्कोनन' नामक अधिकारको दी है। परन्तु टीकाकारने उनपर कोई टीका नहीं दी गाथाएं न०२ और 6 है, जो मूल प्रकृतियोंके नाम लिखी, इस कारण उन्हें प्रचित पतलाया जाता है। तथा उत्तर प्रकृतियों की मग्न्याकी निर्देशक है, वे
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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