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________________ ३०२ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२१ कर्मस्तवमें ६, १० नं० पर पाई जाती हैं। इस तरह से प्रकरण ग्रन्थ है। जिसे प्राचीन षष्ठ कर्मग्रन्थ भी उक्त कर्मस्तव ग्रन्थ में ५५ गाथाओंका जो संकलन कहते हैं । इसकी कुल माथा सख्या ७५ है । इस प्रक. हुआ है वह सब इसी पचसंग्रह परसे हुआ जान पड़ता रणके संकलन-कर्ता आचार्य चन्द्रर्षि माने जाते हैं। है। पाठकोंकी जानकारीके लिये तुलनाके तौर पर कहा जाता है कि आपने स्वयं इस पर २३०० श्लोक यहां दो गाथाएं दी जाती है: प्रमाण एक टीका भी लिखी है। परन्तु वह अभी तक मिपाउंसमवेयं रिया तहय चेव गिरयदु।। मेरे देखनेमें नहीं आई । श्राचार्य चन्द्रर्षि कर्मसाहित्यइगि विविदिपजाई हुँदमसपन मायावं ॥ के अच्छे विद्वान थे । 'पंचसंग्रह' नामकी श्रापकी बार सुहुमंच तहा साहारणयं तहेव अपज्जतं । कृतिका श्वेताम्बर सम्प्रदायमें विशेष श्रादर है । यह पचपए सोबह पपडी मिम्मि प बंध-गुच्छयो। संग्रह उक्त दिगम्बर पंचसंग्रहसे भिन्न है । इस पंच -प्रा० पंचस० ३, १५, १६ संग्रहमे शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म, और मिच्छनपुंसगवेयं नरपाउँ तहपञ्चेव नरयदुर्ग। कर्मप्रकृतिलक्षण नामक ग्रंथोंका; अथवा योग, उपयोगहग विविविध जाई हुँडमसंपत्तमायावं ॥ मार्गणा, बन्धक, बधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधिरूप पावरसुहुमं च तहा साहारणथं सहेव अपज्जतं । प्रकरणोंका संग्रह कियागया है ।निससे इमका पचसंग्रह एया सोलह पपी मिच्छमि प बंधवोच्छेभो ॥ नाम अधिक सार्थक जान पड़ता है । इस ग्रन्थको कुल -कर्मस्तव, ११, १२ गाथा संख्या ६६१ है । इमपर ग्रंथकर्ताने खुद इसी तरहसे प्राकृत पंचसंग्रहकी गाथाएं न० १, ६००० श्लोक प्रमाण एक टीका लिखी है जो मूलप्रथ. ११, १२, २६, ५०, ५१, ५२, ५३, २, ४, १७, १८, के माय मुद्रित हो चुकी है। यद्यपि इस प्रथमें शिव१६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, शर्मकी प्रकृतिका विशेष अनुकरण है परन्तु वह मब ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, अपने ही शब्दौमें लिखा गया है। कहीं कहीं पर कुछ ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५५, ५६, कथन दिगम्बर ग्रंथोंमे भी लिया गया मालुम होता है, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, परन्तु वह बहुत ही अल्प जान पड़ता है। प्राचार्य कर्मस्तव में क्रमशः न० १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, चन्द्रर्पिने पचमंग्रहमें अादि मगल करके ग्रंथके कथन १०, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, करने की प्रतिज्ञाकी है । और अन्त की निम्न गाथा में २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २६, पंचानां शतक सप्ततिका-कषायमाभत३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७. ३८, ३६, सत्कर्म-कर्मप्रकृतिलक्षणांनोग्रन्यानो, अथवा पंचाना ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, मनामा धिकाराणां योगोपविषय मार्गणा-बंधक५०,५१,५२, ५३, ५४, ५५, पर ज्योंकी त्यों रूपसे बंधम्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणानां संग्रहः पंचसंग्रहः । -पंचस. २० मलयगिरी गा.१ उपलब्ध होती हैं। + नमिडण जिणं वीरं सम्म दुहकम्मनिट्ठवगं । सप्ततिका और पंचसंग्रह बोच्छामि पंचसंग्गहमेय महत्थं माइत्थंच॥१॥ श्वेताम्बरीय कर्म ग्रंथों में 'सप्ततिका' नामका भी एक -पंचसग्रहे, चन्द्रर्षिः। - - --- - -
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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