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________________ व, विनय श्वेतामा कर्म साहित्य और दिगम्बर 'पंचसंग्रह' ३८३ अपने उक्त प्रकरणकी समाप्ति के साथ अपना नाम भी लन किया हुआ मालम नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे व्यक्त किया है। ही के द्वारा इधर उधरसे संग्रह किया हुआ जान सुबदेविपसायामो पगरयमेयं समासमो मणियं। पड़ता है । समयामो चंदरिसिवा समईविभवानुसारेण ।। दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रहके सत्तर भंगवाले इस गाथाम बताया है कि आगम और श्रुतदेवीकी अंतिम अधिकारकी ५१ गाथाएं उक्त प्रकरणमें प्रायः प्रमन्नताम यह प्रकरण मुम चंद्रर्षिने अपनी बुद्धिविभव ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपके अनुसार मंक्षेपसे कहा है। लब्ध होती हैं । उसमेंसे दो गाथाएं यहां नमूनेके तौर इसके मिवाय, पचसग्रहकी अपनी स्वोपजवृत्तिमें पर दो जाती है:-- भी चदर्पिने मगलाचरण किया है और टीका के अंतमें कदिबंधतो वेददि कइया कदि परिठाण कम्मंसा it प्रशस्लि भी दी है जिसमें अपने को पार्श्वभूपिका मूलुत्तरपयीसु य भंगवियप्पा दुबोहम्बा ॥ शिष्य बतलाया है। परंतु 'मप्तितिका' नामके इम -प्रा. पंचसं०,५२८ प्रकरणमे कोई मगलाचरण नहीं किया है और न प्रथ- का बंधतो यह कह कह वा पयडिसंतठाणाशि : के अन्तमें संकलन कर्ताने अपना नाम ही व्यक्त किया मूलुत्तरपगईणं भंगवियप्पा उ बोहम्वा ॥ है । अनः चन्द्रर्पिही इस प्रकरण के मकलनकर्ता हैं या -सप्ततिका ७२ कोई अन्य, यह बात जरूर विचारणीय है। ऐमा नही अढविहसत्तछब्बंधगेसुमठेव उदयकम्मंसा । हो मकना कि एक ही प्रथकार अपने एक ग्रथम और एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो भयंचम्मि । उसकी टीका तकमें तो मगनाचरण दे और ग्रंथके प्रा० पंचमंग्रह, ५२६ अन्नमें अपना नाम भी प्रकट करे, परतु दूसरे प्रथम भट्टविहसत्तछब्बंधगेसु भटेव उदयसंताई । श्रादि अतकी उक्त दोनो बातोमं मे एक भी न करें । एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो प्रबंधम्मि । इसके अतिरिक्त चंद्रपिने अपने पचमग्रहम 'मननिका' -सप्ततिका ३ नामका एक प्रकरणा भी लिया है, जिनमें विस्तारसे इनके अतिरिक्त पंचमंग्रहकी गाथाए न० ५२७, इन्हीं मय बानोंका कथन किया गया है, जो इम ५३०, ५३१, ५३३, ५४७, ५५५, ५५६, सप्ततिका प्रकरण में तथा दिगम्बरीय कर्मप्रथोंमें पाई ५५१, ५६२, ५७३, ५७४, ७४२, ७७४, ७७५, ७७६, जाती हैं । परंतु वह सब कथन अपने अनुभवादिके ७८५, ७८८, ८२६, ८३०.६.१,६४६, ६८२,६८३, साथ अपने शब्दोंमें निरूपित है, जिसमे उक्त प्रकरण ९८४, १८६, ६८७, ६६०, ६६१, ६६५, १००३, बहुत अच्छा है। उस प्रकरणसे इस प्रकरणमें कोई १०१४, १०१५, १०१६, १०१७, थोडेसे साधारण विशेषता मालम नहीं होती, जिससे उनके द्वारा उमीके शब्द परिवर्तनके माथ मप्ततिका(पष्ठ कर्मप्रथ) में क्रमशः फिरसे रचे जानेकी कल्पना की जा सके । इस प्रकरणमें नं. १, ४, ५, .. 1, 16. ५, १६, २४, पचसंग्रह जैमा स्पष्ट तथा उससे अपूर्व कुछ भी कथन २५, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४६, ४७, नहीं है। इसीसे यह प्रकरण प्राचार्य चद्रषिका संक- अत्र अंश इतिशहेन सत्ता गृह्यते ।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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