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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६५] वीतराग प्रतिमानोंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि १०६ प्रादिकी लीला करके ही उनको प्रतिष्ठित मानना कैसे बनानेके वास्ते उसके पास तोर तरकश, ढाल-तलवार ठीक बैठ सकता है ? यह तो उलटा उनको बिगाड़ना, और गदा आदि सब हथियार रखते हो तो क्या उस और अपने कारजके विरुद्ध बनाना है। वीतराग प्रतिमाकी जो पद्मासन लगाये. पाच-साथ कन्या हंसकी चाल चले या हंस कन्वेकी चाल चले रक्खे, प्रात्मध्यानमें मग्न दिखाई देरही है, जिसके दोनों ही सूरतोंमें नकल ठीक नहीं बैठा करती है। किन्तु सिरके केश नोचे हुए मालम पड़ रहे हैं, पूर्ण परम बात हंसी मखौलके ही योग्य हो जाती है । यही हाल दिगम्बर अवस्था है, जिसकी परम वीतरागरूप छवि इस विषयमें हमारा हो रहा है । हम दूसरोंकी रीस करके बनाने के वास्ते कारीगरने अपनी सारी कारीगरी खर्च लीला तो करना चाहते हैं गर्भसे लेकर निर्वाण तककी करदी है और प्रतिष्ठा कराने वाले ने भी सबसे अधिक अवस्था की, परन्तु हमारे पास है केवल एक परम वीत- वीतराग छबि दिखानेवाली यह प्रतिमा कारीगरकी राग अवस्थाकी ही प्रतिमा। उसहीको प्रतिष्ठित करने के अनेक प्रतिमाओं से बाँटकर ली है। ऐसी प्रतिमाके बहानेसे हम यह सब लीला रचते हैं; परन्तु बहाना तो पास मनुष्योंकी हिंसाके करनेवाले युद्ध के हथियार रख बहाना ही होता है । इसही कारण उस अपनी परम देनेसे क्या वह राजाकी मूर्ति बन जाती है । नहीं नहीं; वीतरागरूप प्रतिमाको ही गर्भ में रखकर गर्भका बहाना ऐसा करनेसे न तो वह राजाकी ही लीला बनती है करते हैं, उस ही परमवैरागरूप प्रतिमाको पालने में आंधी और न वीतरागकी ही; किन्तु बिल्कुल हीएक पिलरखकर इस तरह झुलाते हैं जिस तरह छोटे छोटे बच्चों. पण लीला बनजाती है जो आजकलके जैनियोंकी को मुलाया करते हैं । यह मूला मुलानेकी लीला प्रतिष्ठा- बुद्धिकी माप कराने वाली सर्वसाधारणके वास्ते प्रत्यक्ष की विधि करने वाले ही नहीं करते हैं; किन्तु सबही कसौटी होती है। यात्री स्त्री-पुरुष पाकर एक-एक दो-दो झोटे देते हैं इन सब बेसिर पैरकी अद्भुत लीलाओंके अलावा और रुपये चढ़ाते हैं । परन्तु इन सबही झोटा देनेवाले यह भी तो सोचने की बात है कि यदि वास्तवमें इन यात्रियोंसे ज़रा पूछो तो सही कि पालने में श्रोधी पड़ी अद्भुत लीलाओंके करनेसे तीर्थकर भगवान्के बालहुई जिस मूर्तिकोतुमने मुलाया है वह बालक अवस्थाकी पन, गृहस्थभोग, विवाह शादी, स्त्रीभोग, राजभोग और मूर्ति नज़र आती थी या परम वीतराग अवस्थाकी ? युद्धादि करनेका सब संस्कार उस वीतराग प्रतिमा जवाब यह ही मिलेगा कि मूर्ति तो पालने में परम वीत- पर पड़ता है, जिसके साथ यह लीलाएँ की जाती है राग अवस्थाकी ही श्रोधी डाल रखी थी। तब तुमने जिसकी प्रतिष्ठाकी जाती है, तो उस प्रतिमा में यह सब बालकको मुलाया या भगवानकी परम वीतराग अवस्थाः संस्कार पड़ जानेसे वह परम वीतरागरूप कैसे रह की मूर्तिको; और वह भी पौधी डालकर । सोचो और सकती है ! परम वीतरागरूप तो वह तबतकही थी खूब सोचो कि यह लीला तुम किस तरह कर रहे हो ? जबतककी उसमें यह महारागरूप राजपाटके संस्कार यह जैनधर्मकी लीला कर रहे हो या उसका मखोल ? नहीं डाले गये थे। उस परम वीतराग रूप भगवानकी इसही प्रकार जब इसही परम वीतरागरूप प्रतिमाको महावीतरागरूप प्रतिमाको यह सब लीलाएँ कराकर कंकण और अन्य प्राभूषण पहनाते हो और राज अवस्था तो मानो परम वीतरागरूप भगवानको मापने फिरसे
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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