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________________ ११० अनेकान्त [वर्ष ३ किरण । गृहस्थमें डाला है और उनकी इस परम वीतरागलप गग देवताओं में भी रागका प्रवेश कराने के लिये परम प्रतिमामें भी गृहस्थ और राजपाटके सब संस्कार घुसेड़े वीतरागरूप प्रतिमाओंमें भी गृहस्थ भोगका संस्कार हैं। अर्थ जिसका यह होता है कि प्रतिष्ठा करनेसे पहले डाल, इन अपनी वीतरागरूप मूर्तियोंको मूर्ति न मान जो यह परम वीतरागरूप प्रतिमा कारीगरने बनाई कर अपने वैमाव भाइयोंकी तरह इन मूर्तियोंको ही थी उसमें तो एक मात्र वीतरागताही वीतरागता साक्षात् रागी परमात्मा ठहराकर उनके पूजनेसे उस ही थी, जो प्रापको उपयोगी नहीं थी, अब आपने उसमें तरह अपने गृह कार्योंकी सिद्धि चाहने लग गये हैं जिस गृहस्प और राज भोग के सब संस्कार डालकर ही तरह उनके पड़ोसी भाई अपने रागी देवताओंको पज उसको अपने कामकी बनाया है, परन्तु ज़रा सोचो तो कर करते हैं। सही कि यह काम आपका जैनधर्मके अनुकूल है, या परन्तु इसमें एक बात विलक्षण है और वह यह बिल्कुल ही उसके विपरीत । नाहे कव्वेने हंसकी चाल है कि प्रतिष्ठांविधिमें किसी एक ही प्रतिमाका गर्भ, बली हो या हंसने कम्वेकी चाल चली हो, परन्तु यह जन्म और राजपाट आदि संस्कार होता है। मिर्फ एक बाल न तो हंसकी ही रही है, और न कळवेकी ही, ही प्रतिमा, जो किसी एक ही तीर्थकर भगवान्की होती किन्तु विलक्षण रूप एक तीसरी ही चाल होगई। वेत्राव है, वह ही एक पालने में मुलाई जाती है, उम ही को लोग अपने भगवानकी रागरूप अवस्थाको पूजते है कंकण आदि आभूषण पहनाये जाते हैं और उम ही के. और वैसीही उनकी प्रतिमा बनाते हैं और जैनी वीतगग पास तीर कमान और ढाल तलवार श्रादि मनुष्य हिंसा के रूप भगवानको पूजते हैं और प्रमही अवस्थाकी उमकी उपकरण रक्खे जाते हैं। तब जो भी रांग संस्कार पैदा प्रतिमा बनाते हैं। इन वीतगगरूप प्रतिमामि जरा हो सकते हों वे तो उस एक ही भगवान्की एक प्रतिमा भी गगरूप भाव बाजाय. उनको ' वस्त्र प्राषिगण पड़ेंगे, जिसके साथ यह सब लीलाएँ की जावेगी; बाकी पहना दिये जाय या युद्ध के हथियार उनके साथ लगा सैकड़ों प्रतिमाएँ जो वहाँ रक्खी होंगी, उनके साथ ऐसी दिये जायें तो वह प्रतिमाएं उनके कामकी नहीं रहती लीला न होने से उनमें ती रागके संस्कार किसी तरह भी है। परन्तु जब कारीगर उनको ऐसीही वीतरागरूप नहीं पढ़ सकेंगे, वे तो वैसी ही परमवीतरागरूप' रहेंगी प्रतिमा बनाकर देने हैं, जैमी वे चाहते हैं तब श्रामकलके भी कि शिल्पीने बना कर दी थी। तब वे आजकलके हम जैनीलोग उन वीतगगम्प प्रतिमानोंको उस जैनियोंके वास्ते पूज्य और उनके गृह-कार्योको सिद्ध वक्त तक स्पो नाकाफी या बिना कामकी समझाते हैं करनेवाली कैसे हो जाती है ? . जब तककी उनके साथ गृहस्थ जीवन और राजभोगकी वास्तवम बात यही है कि हमने दूसरोंकी रीस करके लीलाएँ करके उनमें रागका संस्कार नहीं कर लेते हैं। और मटारकोंके बहकायेमें आकर अपनी असली चालस्था इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म अब परम को खोदिया है, जिससे हम इधरके रहे हैं न उच्चरके। बीतगग धर्म नहीं रहा है किन्तु अपने हरवक्त के पड़ोसी हमारी पहली चाल उन' प्राचीन प्रतिमानोंसे साफ वैष्णव भाइयोंको अपने परमरागी देवताओंकी ही मालूम होती है जो धरती से निकलती है, जिनपर भकि-स्तुवि पूजा-पंदना करता देख अपने परम वीत- प्रतिक्षित होनेका कोई चिन्ह नहीं होता है और जिनको
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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