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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६]
वीतराग प्रतिमानोंकी अजीव प्रतिष्ठा विधि
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आजकलके हमारे भाई चौथेकालकी अर्थात् सतजुगको खाना खिलानेकी कोशिश किया करते हैं और उसके न कहने लगते हैं । चौथे काल या सतजुगकी होनेसे तो खाने पर दुखी होकर उसे फोड़ डालते हैं। परन्तु वे हमको उनसे सबक लेना चाहिये और बिना इस प्रकार- बच्चे भी ऐसी ग़लती हर्गिज नहीं करते हैं कि घोड़े पर की प्रतिष्ठा कराये ही जैसी आजकल होती है, शिल्पीके चढ़ी हुई किसी मिट्टीकी मूर्तिको फलेमें चढ़ाकर मुलाने हाथसे लेते ही अपने काममें लाने लगना चाहिये । लगें या विस्तर पर पड़ाकर सुलाने लगें । उसको तो जरा विचारनेसे हमारे भाइयोंकी समझमें भाजायगा कि वे उस ही प्रकार चलानेकी कोशिश करेंगे जिस प्रकार किम प्रकार आपसे आप ही वस्तुओं की प्रतिष्ठा होने लग घोड़ा चलता है । यह तो हम ही ऐसे विचित्र पुरुष हैं जाती है । बाजार में बजाजकी दुकान पर अनेक टोपियों जो पद्मामन बैठी हुई हाथ पर हाथ धर ध्यानमें मग्म
और बड़ी पगड़ियाँ विक्री के वास्ते रवी रहती हैं। उनकी परमवीतराग प्रतिमाको ही श्रौन्धा लिटाकर झला कोई खास प्रतिष्ठा किमीक हृदय में नहीं रहती है। झुलात हैं, कंकण श्रादि श्राभूषण पहनाते हैं और 'परन्तु व्याही हम उनमेंमे किमी टोपी या पगड़ीको म्वर्गद उसके पाम युद्ध के श्रायुध रखकर भी अपनेको वीतराग कर अपने सिरपर रखने लगते हैं, तब ही में उम धर्मके मानने वाले जैनी बताते हैं। नापी या पगड़ीकी इज्जत व प्रतिष्ठा होना शुरू हो जाती अब रही प्रतिष्ठा विधिकी बात, उसमें और भी क्या है। इम ही प्रकार मूर्ति भी जबतक कारीगरके पाम क्या अदभुत कार्य होता है, उसकी भी जरा झलक रहती है, तबतक वह मामूली चीज़ होती है. परन्त ज्योंही दिखा देनी जरूरी है । यह प्रतिष्ठाएँ बहुत करके प्रतिष्ठा. हम उमको कारीगरसे लेकर अपने इष्टदेवताकी मति मारोवार ग्रन्थके द्वारा. होती चली रही है, जिसको मानने लगते हैं तब ही से उनकी प्रतिष्ठा व इज्ज़त होना पं० आशाधरने निक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें प्रतिष्ठासारके शुरू हो जाती है। उसकी प्रतिष्ठाके लिये इस प्रकारको आधार पर बनाया है जिमको वसुनन्दीने कुछ ही समय बेजोड़ लीलाओंके करने की कोई जरूरत नहीं है जैसी पहले बनाया था। विक्रमकी १६ वीं शताब्दीमें नेमिचन्द्र श्रा नकल की जाती है । परन्तु अाजकल तो हम लोग नाम के एक विद्वानने भी एक बृहत् प्रतिष्ठा पाठ बनाया वीतरागप्रतिमासे वीतरागभावांकी प्रामिका काम नहीं है और इसके बाद १७ वीं शतान्दीमें अकलंक प्रतिष्ठा लिया चाहते हैं। मूर्तिको मूर्ति ही नहीं मानना पाठ नामका भी एक ग्रन्थ बना है जिसमें ग्रन्थ कर्ताका चाहते हैं । किन्तु उसको हमारे गृहकार्योंके सिद्ध करने नाम भट्टाकलंकदेव लिम्ला रहनेसे बहुतसे भाई इसको वाला रागी देषी देवता बनाना चाहते हैं । ऐसी हालतमें रानवार्तिक आदि महानग्रन्थोंके कर्ता श्री अकलंक कारीगरसे हमको वीतरागरूप प्रतिमा नहीं बनवानी स्वामीका बनाया हुश्रा ममझते रहे हैं जो कि विक्रमकी चाहिये । किन्तु साफ-साफ रागरूप ही प्रतिमा बनवानी ७वीं शताब्दीमें हुए हैं, परन्तु ग्रंथ परीक्षा तृतीय भागचाहिये । बीतगगरूप प्रतिमा बनवाकर फिर उसमें राग- में पं० जुगलकिशोर मुख्तारने साफ सिद्ध कर दिया है रूप संस्कार डालनेकी कोशिश करनेसे तो न वह बीत- कि यह ग्रंथ राजवार्तिक का अकलंक स्यामीसे अाठमी गगरूप ही रहती है न रागरूप ही, किन्तु एकमात्र नौमो परम पीछे लिखा गया है । इम ही प्रकार नेमिबचोका सा खेल हो जाता है, जो मिट्टोके खिलौनेको चन्द्र प्रतिष्ठापाठको भी बईन लोग गोम्मटमारके की