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________________ :. ११२ अनेकाच्या श्री नेमिचन्द्र आचार्यका बनाया हुआ समझते रहे हैं, आगे चलकर लिखा है कि प्रतिष्ठाके सात-आठ नेमिचन्द्र श्राचार्य विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं दिन बाकी रहनेपर प्रतिष्ठा करानेवाला सेठ प्रतिष्ठा करने और यह ग्रंथ उनसे पाँचती छैसौ बरस पीछे एक वाले विद्वानके घर पर जावे । स्त्रियां तो अक्षत भरे हुए गृहस्थ ब्राह्मणके द्वारा लिखा गया है जैसा कि बा० जुम- थाल हाथमें लिये हुए गाती हुई आगे जारही हो और लकिशोर मुख्तारने जैन-हितैषीके १२ वे भागमें सिद्ध साथमें साधर्मी भाई हों । इस प्रकार उसके घरसे उसको किया है। प्राशावर १३वीं शताब्दी में संस्कृत के बहुत अपने घर लावे । वहाँ चौकी बिछाकर उसपर सिंहासन बड़े विद्वान होगये है, उन्होंने ग्रन्थ भी अनेक रचे हैं रखे और चौमुखा दीपक जलावे । सिंहासन पर उस इस ही कारण विद्वान् लोग उनके ग्रंथोंको बड़ी भारी विद्वानको बिठा गीत नृत्य बाजों के साथ, वस्त्राभूषणमें प्रतिष्ठा के साथ पढ़ते हैं, बहुतसे संस्कृतज्ञ पंडित तो उनके शोभायमान चार सधवा जवान स्त्रियाँ उसके शरीर पर पाक्योंको प्राचार्य, वाक्यके समान मानते हैं । परन्तु चन्दन लगावें, फिर उसके अंगमें तेल उबटना लगाया पं० प्राशाधर पूर्णतया भट्टारकीय मतके प्रचारक रहे हैं जावे । फिर पीली खलीसे तेल दूर कर स्नान कराया जैसा कि प्रतिष्ठा विषयक नीचे लिखे हमारे कथनोंसे जावे । फिर स्वादिष्ट भोजन करा वस्त्राभूषणसे सजाया सिद्ध होगा। नीचे लिखा कथन यद्यपि ऊपर वर्णित जावे ( जवान स्त्रियों ही क्यों उसके अंगको चन्दन सबही प्रतिष्ठापाठोंके अनुसार होगा परन्तु उस कथनका लगावें बढ़ी स्त्रियां क्यों न लगावें, इसका कोई कारण विशेष प्राधार पं. प्राशावर विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार नहीं बताया गया है)। ही होगा, क्योंकि उस ही पर पंडितोंकी अधिक श्रद्धा है। इसके बाद मंडप और वेदीयनवाकर नदी किनारेकी प०अाशाधरजी लिखते हैं कि-"जिनमन्दिर तैयार वामी श्रादिकी पवित्र मिट्टी, पृथ्वी पर नहीं गिरा हुआ होने में कुछड़ी बाकी रह जाने पर शिल्पग्रादिके कल्याण के पवित्र गोबर ऊमरश्रादि वृक्षोंकी छालका बना हुआ लिए यह विधिको जावे कि प्रतिमा विराजमान होनेवाली काढ़ा इन सबको मिलाकर इससे आभूषणादिसे सुसवेदीके बीचमें ताँबेका घड़ा दो वस्त्रोंसे ढकाहुआ रखे। ज्जित कन्याएं उस वेदीको लीपें । ऐसा ही नेमिचन्द्र घड़ेमें दूध, घी, शकर भरदे और चन्दन,पुष्प, अक्षत्से प्रतिष्ठा पाठ के नवम परिच्छेदके श्लोक में भी खंडादि उसकी पूजन कर फिर उस घड़ेगे पाँच प्रकारके रत्न, कलाशाभिषेकके वर्णनमें लिखा है कि इन कलशोंमें और सब औषधि, सब अनाज, पारा, लोहा मादि पाँच गायका गोबरआदि अनेक वस्तुएँ होती है। फिर श्लोक धातुएँ भरदे, फिर चाँदी वा सोने का मनुष्याकार पुतला में पंचगव्य कलशाभिषेकका वर्णन करते हुए लिखा बनाकर उसको घो प्रादि उत्तम द्रव्योंसे स्नान कराकर है कि इसमें गायका गोबर, मूत्र, दूध, दही, घी आदि प्रवत प्रादिसे पूज निवारसे बुनी हुई गद्दी तकिये भरे होते हैं । इसही अध्यायमें गाय के गोबर के पिंड अनेक सहित सेजपर अनादि सिद्ध मन्त्र पढ़कर लिटावे । फिर दिशामें क्षेपण करना, अपने पाप नाश कराने के वास्ते जिन भगवानका पूजनकर उत्सवसहित उस पुतलेको लिखा है। ऐसा ही १३वे परिच्छेदमें गायके गोबर घड़े में रखे । ऐसा करनेसे कारीगरोंको कोई विप्न नहीं प्रादिसे मण्डपको शुद्ध कराकर सोलहकार भावनाके होता है, शुभ फलही होता है। पुंज रखे । फिर इसही ११वे परिचोदमें लिखा है कि
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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