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________________ हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन और जैनदर्शन [.--40 सुमेरचन्द जैन न्यापतीर्थ, 'उसिनी देववन्द यू. पी.] हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग ही हिन्दी वीजी निराश होकर यह कार्य किसी अन्यके सुपुर्द भाषाकी सर्वतोमुखी उन्नति करने वाली एक मात्र करना चाहते थे। यही बात उन्होंने 'अनेकान्त' में संस्था है। इसलिए उसने अपना एक स्वतन्त्र प्रकट की थी। इस बातको पढ़कर मेरे मनमें यह हिन्दी-विश्वविद्यालय कायम कर लिया है, जिस- जाननेका कौतुक उत्पन्न हुआ कि परीक्षा-ममिति में भारतकं प्रत्येक प्रान्त और धर्मके अनुयायी क्यों जैनदर्शन-प्रन्थ रखना नहीं चाहती ? इस बिना किसी भेद-भावके परीक्षा देते हैं । इन विषयमें मैंने उन्हें एक पत्र लिखा उममें जैनदर्शन परीक्षाओंकी मान्यता सरकार और जनता दानों और अपभ्रंश माहित्यकी आवश्यकता सम्बन्धी में ही है । अतः यह संस्था अधिक सर्वप्रिय बनती एक लेख लिखा । अन्तमेंयह भी लिखा, कि बिना जाती है। इधर हमारे समाजके विद्यार्थी सम्मेलन- जैनदर्शनके समझे दर्शनोंका विकाश और अपभ्रंकी परीक्षामें अधिक सम्मिलित होने लगे हैं, श भापाकं बिना हिन्दी-साहित्यक निकासका पता परन्तु सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनधर्म सम्बन्धी नहीं लगाया जा सकता है। उत्तरमें श्रीमान पंडित कोई विषय नहीं रक्खा है, इमलिय जैनविद्वानोंका रामचन्द्रजो दीक्षित रजिस्ट्रार हिन्दी-विश्वविद्या. ध्यान इस तरफ आकर्पित हुआ। इस विषयमें लय प्रयागका जो पत्र मिला वह इस प्रकार है:पंडित रतनलालजी मंघवीने संस्थाकं प्रधानमंत्री प्रियमहोदय! श्रीमान् पं० दयाशंकरजी दुवेक माथ दो वर्ष तक लगातार पत्रव्यवहार किया। इम पत्रव्यवहारमें आपका पत्र मिला। संघवीजीने प्रथम दुवेजीको यह लिखा था कि जैनदर्शनको सम्मेलन परीक्षाओंमे स्थान देने 'सम्मेलनको प्रथमा और विशारद परीक्षामें जैन- के सम्बन्धम परीक्षा समितिने निश्चय कर लिया दर्शन वैकल्पिक विषयमें सम्मिलित कर लिया है। इस सम्बंधमें लिखा पढ़ी भी हो रही है। जाय ।' उसपर दुवेजीने अपने अन्तिम पत्रमें यह भवदीय-- पात प्रकट की कि 'मैं सम्मेलनको परीक्षामें जैन रामचन्द्र दीक्षित दर्शन रखनेके पक्षमें हैं; परन्तु हमारी परीक्षा रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालय प्रयाग । समिति इसके लिये तैयार नहीं है । इसके बाद क्या हुआ ? इस विषममें मुझे कुछ भी पता नहीं। इस पत्रसे विदित होता है कि रजिस्ट्रार पर हां, उनकं पत्रसे निश्चित है कि उन्होंने प्रेम- महोदय सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैन-दर्शन रखने पूर्ण जवाब देकर टालमटूल कर दो; इसलिये संघ. के लिए तैयार हैं। परीक्षा-समितिनं निश्चय कर
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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