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पास्मिक क्रान्ति
२०॥
बल प्रयोगकी तीयता अपेक्षित है।
यह परिवर्तन ही भामिकान्ति है और यही इस क्रान्तिका मूल सत्व भी भाशा है। बबोदित सबी क्रान्ति है। प्राचीकी सची भूजसे प्रेरित दुई सवा माशाके स्फुरणसे प्रेरित हो यह भग्यास्मा अपने बच्य अश्य सुख प्राप्त करानेवासी समर क्रान्ति पही है। की मोर अग्रसर होता है। उस समय भात्मिक पतनके अन्य समस्त, राजनैतिक, सामाजिक प्रादि क्रान्तियों होते हुए भी कुछ इस प्रकार मन्दकषायका उदय होता का फल स्थायी नहीं होता, थोरे या अधिक समय
कि अपनी वस्तु स्थिति से उक्त पारमा असन्तुष्ट हो उपरान्त फिर दशा पतित हो ही जाती है, चाहे कितनी जाता है, अपनी अवस्था उसे असह्य हो जाती है। भी सफल क्रान्ति क्यों न हो । किन्तु चास्मिक शान्ति उसके अन्तरमे एक प्रकारका घोर आन्दोलन होने ल- यदि मफल हो जाय तो इसका फल चिरस्थानी ही नहीं, गता है। वह अपनी समस्त शक्तियोंको एकत्रित करके अविनाशी और अनन्त होता है। अतः पदि किसी भारम-प्रवृत्तिका रुख बदल देता है तथा भान्मो तिकी क्रान्तिक अमरत्वकी भावना खानेकी पावश्यकता है तो चोर अग्रसर होने लगता है।
वह माग्मिक क्रान्तिकी ही है।
सम्बोधन
[नं० प्र० प्रेम पंचरय] चपन मन ! क्यों न लन विश्राम ? क्यों पीछे पड़ गया किमीके, तजकर अपना धाम ? आशा छोड़ निगशा भनलं, श्वामाको ले थाम ॥चपल०॥
आज कहन कल करत नहीं है, भूलान निज काम । * कब पावे वह समय भजे जब, अपना आतमगम ॥ चपल०॥ N यह काया नहि रहे एक दिन, जिमका बना गुलाम। 4 माया-मोह महा ठग जगमें, मतलं इनका नाम ।। चपल०॥
अब मत यहाँ-वहाँ पर भपकं, आजा अपने ठाम । 'प्रेम' पियूष पान कर अपना, पावं सुख अभिराम ॥चपल०॥