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________________ २८२ अनेकान्त [माघ, वीर निर्वाच सं० २०१० हन्त्रिप-विषयक परतन्त्रतामें जकड़ा हुमा पतनके गर्समें पानेकी इच्छा ही नहीं होती। दूर जाता है तो उसके उद्धारका एकमात्र उपाय मा. परन्तु यह भात्मिक क्रान्ति एक ऐसा भान्दोलन स्मिक क्रान्ति ही है। समस्त सांसारिक दुखोंके कारण है, भास्मिक पतनकी ऐसी माध्यात्मिक प्रतिक्रिया है खोम-मोह है। जिस प्रकार राजनैतिक एवं सामाजिक कि उसकी ममस्त प्रवृत्तियाँ और समस्त शक्तियाँ अपने कटोंका कारण पूंजीवाद अर्थात् जीपतियोंका निर- आदर्श, अपनी स्वाभाविक अवस्था-पूर्ण स्वतन्त्रतास्तर बिल शक्तिवर्धन तथा उपभोग है उसा प्रकार प्राप्तिके कार्य में संलग्न हो जाती हैं । समस्त भास्मिक वीके समस्त सांसारिक कष्टोंका मूल कारण लोभ- शक्तियाँ सामूहिक एवं सुसंगठित रूपसे क्रियावान हो . मोह-अनित परिगृह-वृद्धि तथा विषयाकांक्षा ही है, जाती हैं । राजनैनिकमथवा सामाजिक क्षेत्र-सम्बन्धी बिससे त्राण पानेका साधन इन्द्रिय-दमन रूप प्रति क्रान्तियोंकी कारणभून चार मूलैषणाओंकी भाँति इस है।रिमा तप संयमादिक बल-प्रयोगोंके कभी कोई प्राध्यात्मिक क्रान्तिका कारण भी ज्ञान, दर्शन, सुख, बाल्मा चारित्र्य-सत्ता-प्राप्तिम मफल नहीं हुआ। वीर्य--अनन्त चतुष्टय-रूप परमानन्दमय पूर्ण स्वतन्त्र अन्य पदार्थोंकी भांति प्रारम द्रव्यमी परिणमन- अवस्थाकी प्राप्त्यर्थ प्रास्मिक मूलैषणाएं ही हैं जो वा. शील है। किन्तु यह प्रारम-परिणमन सदा स्वाभाविक स्तवमं प्रत्येक प्राणीकी आरमामें लक्ष्य अथवा अलषय ही नहीं हुआ करता,वरन प्रायः वैभाविक ही होता है। रूपमे विद्यमान हैं। पाल्मा अपने निजी स्वभावको भूलकर विकारग्रस्त हो जिन प्रास्माओंमें उक्त मूलैषणाओंकी नसिके साजाता है और सब प्रकारके कष्टकर दुःखोंका निरन्तर धन अवस्थित हैं अर्थात् जिन्हें अपने स्वाभाविक गणोंशिकार बना रहता है । उसको दशा बहुधा उस बन्दीके का अपने स्वरूपका भान है और जो उसकी प्राप्ति समान होती है जो बन्दीखाने में ही जन्म लेता है, में संलग्न हैं उन्हें इस प्रान्तिको आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिसे कभी ऐमा सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कि ये मम्यक्त्व युक्त श्रात्माये उन्ननिशील हैं और अपने वह अपने जन्मस्थानके वास्तविक स्वरूपको जान सके । उद्योग सफल ही होकर रहेंगी। अपने ध्येयको, अपने वह यह भी नहीं जान पाता कि उसके ग्राम पाय जो श्रादर्शको जबतक प्राप्त नहीं करलेंगी प्रयत्न नही बहुमूल्य फर्नीचर एवं भोगोपभोगकी प्रथर मामग्री छोड़ेगी। वयमान है वह कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में उसके मान- किन्तु जो प्रारमाएँ इतनी भाग्यशाली नहीं है स्पी दुर्गको ऐसी अलषय किन्तु मुहर दीवारें हैं जो न और अभी तक पननकी ओर ही अग्रसर हो रही हैं, केवल उसकी स्वतन्त्रताका भी अपहरण कियेहुएहैं ,वरन जिन्होंने सब सुध बुध खो रवावी है, जो इस पञ्ज उक्त स्वतन्त्रता-प्राप्तिको इच्छाका भी प्रभाव किए हुए परिवर्तन रूप संमारमें अनादिस गोता म्वा रही हैं हैं। सामारिक मोहजाल में फंसे हुए उस प्रारमाके लिये और यदि ऐमी ही अवस्था रही नो न मालूम कबतक भास्मिक स्वातना प्राप्त करना दुर्लभ ही नहीं किन्तु इसी प्रकार जन्म मरणरूप संसारके दुःम्ब भोगती रहें। वह उसकी प्राप्लिके लिये प्रयत्नवान भी नहीं होता। उन्हें ही इस क्रान्तिकी आवश्यकता है, जिसके लिये उस मोहान्ध पारमाको प्रान्म जागतिके दिग्य लोकमें पतनकी तीबनाके अनमार ही नप संयमादिक रूप
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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