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कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६]
मातृत्य
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वसुमित्राको माँ बनते देखकर भी, प्रथम-पत्नी-वसुदत्ता- व्यापारके सुनहरे-प्रलोभनों और निवास-नगरकी ईर्षालु न हुई ! न उसके हृदयमें विषादका अंकुर ही असुविधात्रोंने समुद्रदत्तको नगर छोड़ देनेके लिये विवश उगा ! बल्कि वह और भी सरस-हृदय, विनोदप्रिय और किया । कुछ दिन बात टालमटल पर रही ! श्राखिर श्रानन्दी बनती गई !
वह दिन श्राकर ही रहा, जब समुद्रदत्त अपने छोटे से बालक जितना वसुदत्ता पर खेलता, प्रसन्न रहता, परिवारको लिए, राजगही या उपस्थित हुए !... उतना दूसरों पर नहीं ! वह अपनी माँ से भी अधिक उन दिनों 'राजगृही' महाराज श्रेणिककी राजधानी वसुदत्ता पर हिल गया ! इसका कारगा ?-मौलिक थी। जो अपनी न्याय-निष्टा और कर्तव्य-परायणताके नहीं ! यही कि पालन-पोषणकी सावधानी और स्नेह- सबब काफ़ी ख्याति उपार्जन कर रहे थे !...उनके पूर्ण-दुलार ! इन्हीं चीज़ोंकी तो बालकको ज़रूरत थी। अाधीनस्थ एक ऐसी शक्ति थी, जो उनसे अधिक विज, उस छोटेसे सुन्दराकार मॉम-पिण्डको अभी सांसारिक- चतुर और राज-नीतिमें पारंगत थी। उसकी विलक्षणता गम्भीर और विशद-अभिलाषायाने दबाया ही कहाँ था, के द्वारा होने वाले रहस्य-मय, उलझन पूर्ण मामलोंके जो दिन प्रति बढ़ने वाली आवश्यकताएँ-उत्पीडन न्याय, संसार के लिए चर्चा के विषय बन जातं थे ! सहदती ? थोड़ा सा क्षेत्र और सीमित-इच्छा !... योगी-शासक-वर्ग उन न्याय-पूर्ण रहस्योद्घाटनको देख___ स्वर्ग और नरककी परिभाषा करते समय यदि सांसा- सुन अवाक रह जाता, दांतो तले उंगली दाब जाता ! रिक दृष्टिकोणको अधिक तरजीह दी जाए तो यही फल उस साकार-शक्ति का नाम था-अभयकुमार ! सामने आयेगा कि जहाँ मैत्री है, प्रेम है, हार्दिकता है, जो महाराजका प्यारा पुत्र था। प्र गाकी गंभीर वहीं स्वर्ग है । और नरक उसकी संज्ञा है-जहाँ कलह, और आशा-पूर्ण मुखरित वाणी थी ।''दूमरे शब्द हत्या, पशुत्व और श्रात्म-हननकी साधनाएँ सद्भाव में जनताका सहायक-नेता और अधिनायक सेनापति रखती हैं !...
था। इसलिए कि शासनकी बागडोर अभी उसके हाथमें तो ऐसे ही स्वर्गीय-मुखाम बढ़ने लगा वह नवजात- नहीं थी-युवराज था--यह ! शिशु ! जिसके पास–अन्य, शैशव-विभूतिवानोंसेद्विगणित-मातृत्व था ! क्या चर्चा उसके भाग्योदय __ थोड़ा समय और निकल गया। की?
अचानक समुद्रदत्त पर रुग्णना का प्रहार हुआ ! हम अरुचिकर-यवनिका-पातने सारे घरकी प्रसन्नताको
श्रदर्शनीय बना दिया !''दोनों नारी हृदय भयाकुल कई वर्ष आए और चले गए !
हो, तमसाच्छन्न-भविष्यकी डरावनी-कल्पनामें लीन होने इस बीचमें कितना युगान्तर हुआ, इसका टीक लगे ! यथा-साध्य उपचार करनेमें कुछ त्रुटि न रह बतला सकना कठिन है ! दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, जाए, इसका सतर्कता-पूर्वक ध्यान रखा जाने लगा ।... अयण और वर्षने समय समयमें जो परिवर्तन किया, जब तक संज्ञा-शून्य न हुए, किंचित भी होश और वह सोचनेकी बात है !...
'वाणी-प्रकाशनकी सामर्थ्य रही, बराबर समुद्रदच न.