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________________ वर्ष, निय तात्याविगममान्य और आकर्षक समय वाला है उसका कथन 'कासवेस्बेके सूत्रमें उद्धृत करते हैं। किया जायमा। ___ "इति श्रीमदईयवचने तत्वार्थधिगमे स्मारवातिस्वयं भाष्यकारने "तस्कृतः कालविभागः" सूत्र वाचकोपशसूत्रमाध्ये भाज्यानुसारिएयां च टीचयां सिदकी व्याख्या में 'कालोऽनन्तसमयः वर्तनाविवरण इस्यु. सेवाणिविरचितायो भनगारागारिधर्मरूपकः सप्तमो कम्' मादि रूपस कालद्रव्यका उलंख किया है। ऽध्यायः" । इतना ही नहीं मुख्तारसाहबको शायद अत्यन्त यहाँ अर्हत्प्रवचने,तत्वार्थाधिगमे और उमाबा आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है-"सर्व- तिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये-ये तीनों पद सप्तम्यन्त पंचवं अस्तिकायावरोधात् । सर्व घट्वं पदण्यावरोधा- हैं। उमास्वातिवाचकोपन सूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि द"। वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियों का स्पष्टीकरण उमास्वातिवाचकका स्कोपन कोई भाष्य है। इसका करते हुए लिखा है--"तदेव पंचस्वभावं घट स्वभावं नाम तत्वार्थाधिगम है। इस अईत्प्रवचन भी कहा पड्मयसमन्धि तत्वात् । तदाह-सर्व पटकं पदम्पा- जाता है । स्वयं उमास्वातिने अपने भाष्यकी निम्न वरोधात् । पड़मम्माणि । कथं, उच्यते-पच धर्मादीनि कारिकामें इसका समथन किण हैकाजोत्येके"। इससं बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तत्वार्थाधिगमाख्यं बहर्ष संग्रहं बघुप्रयं । उमास्वाति छह द्रव्योंको मानते हैं। छह द्रव्योंका वक्ष्यामि शिष्यहितमिममद्विचनैकदेशस्य ॥ स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच भस्ति- भागे चलकर तो मुख्तार साहबने एक विचित्र कायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं कल्पना कर डाली है । भापका तर्क है, क्योंकि किया गया कि काल कायवान नहीं । भतएव राजवातिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव अकलंकने षद्रव्य वाले जिस भाष्यकी ओर संकेत राजवार्तिक में "उक्त हिपहप्रवचने" पाठ भी मशुद्ध किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम है तथा 'महत्प्रवचन' के स्थान पर 'महत्प्रवचनभाष्य ही है । इस भाष्यका सूचन अकलंकन हृदय' होना चाहिये । कहना नहीं होगा इस कल्पना 'वृत्ति' शब्दसे किया है। का कोई भाधार नहीं। र्याद पं. जगलकिशोरजी ___ मुख्तार साहब लिखते हैं-"अर्हत्प्रवचन" का राजवार्तिककी किसी हस्तलिखित प्रतिसे उक्त पाठको तात्पर्य मूल तत्त्वाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थभाष्यस मिलान करनेका कष्ट उठाते तो शायद उन्हें यह नहीं।" अच्छा होता यदि पं० जुगलकिशोरजी कल्पना करनका भवसर न मिलता । मेरे पास इस कथनके समर्थनमें कोई यक्ति देते । आगे चल राजवार्तिकके भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट की प्रतिके कर आप लिखते हैं-"सिद्धसनगणिक वाक्यमें आधार पर लिये हुए जो पाठान्तर हैं, उनमें 'माई. अर्हत्प्रवचन विशेषण प्रायः तस्वार्थाधिगमसूत्रके प्रवचन' ही पाठ है। अभी पं. कैलाशचन्द्रजी लिये है, मात्र उसके भाष्यके लिये नहीं।" यहाँ शास्त्री बनारससे सूचित करते हैं कि “यहाँ की 'प्रायः' शब्दसे आपको क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट लिखित राजवार्तिकमें भी वही पाठ है जो मुद्रिवों नहीं होता। हम यहां सिद्धसंतगशिका वाक्य फिरसे है।"
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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