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________________ भनेकान्त [भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४१६ - इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले मुख्तार साहब और राजवार्तिकके तुलनात्मक उद्धरण देकर यह कह चुके हैं कि "अर्हत्प्रवचन विशेषण मूल तत्वार्थ- बता चुके हैं कि अनेक स्थानों पर भाष्य और सूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि अकलंक राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । इनमें से बहुतसी देव "उकं हि महत्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" बातें सर्वार्थसिद्धिमें नहीं मिलती, परन्तु वे राजकह कर यह घोषित करें कि अर्हत्प्रवचनमें अर्थात् वार्तिकमे ज्योंकी त्यों अथवा मामूली फेरफारसे दी तत्वार्थसूत्रमें ( स्वयं मुख्तारसाहबके ही कथना- गई हैं। नुमार ) "द्रव्यामया निर्गुणाः गुणाः" कहा है तो "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थ इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अर्हत्प्रवचन' च"भाष्यकी इस पंक्ति को राजवातिकमें तीन वार्तिक पाठको अशुद्ध बताकर उसके स्थानमें अर्हत्प्रवचन- बनाई गईहैं-'अम्पन्सर कृतवार्थःकायशब्दः'; तदग्रहणं हृदय' पाठकी कल्पना करने का तो यह अर्थ प्रदेशावयवबहुत्वज्ञापनार्थ'; 'भद्धाप्रदेशप्रतिषेषार्थ च । निकलता है कि अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्र कहना नहीं होगा कि वार्तिकको उक्त पंक्तियोंका प्रन्थ रहा होगा, तथा "व्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" साम्य सर्वार्थमिद्धिकी अपेक्षा भाष्यसे अधिक है। यह सूत्र तत्वार्थसूत्रका न होकर उस महत्प्रवचन दूसरा उदाहरण-'नाणोः' सूत्रक भाष्यमें उमाहृदयका है जो अनुपलब्ध है। स्वातिन परमाणुका लक्षण बताते हए लिखा हैश्वेताम्बरग्रन्थोंमें आगमोंको निग्रंथ-प्रवचन 'अनादिरमध्यो हि परमाणुः'। सर्वार्थसिद्धिकार यहां अथवा अर्हत्प्रवचनके नामसे कहा गया है। स्वयं मौन हैं । परन्तु राजवातिकम देखिये-आदिमध्या उमास्वातिने अपने तत्वार्थाधिगमभाष्यको 'अह. न्तव्यपदेशाभावादिति चेन्न विज्ञानवत् (वार्तिक ) द्वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है। इसकी टीका लिखकर अकलंकने भाष्यकं उक्त वाक्य अहत्प्रवचनहृदय अर्थात अर्हत्प्रवचनका हृदय, का ही समर्थन किया है। इस तरहकं बहुतसे उदाएक देश अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचन- हरण दिये जा सकते हैं। हृदयका लक्ष्य भाष्य हो मकता है । अथवा अह- इसी तरह सूत्रोंक पाठभेद की बात है। 'बन्धे प्रवचन और अहत्प्रवचनहदय दोनों एकार्थक भी समाधिको पारिणामिको', 'म्याणि जीवाश्च' आदि हो मकते हैं। हमारी समझसे भाष्य, वृत्ति, प्रह- सूत्र भाष्यमे ज्योंकी त्यों मिलती हैं। उक्त विवेचन प्रवचन और अहत्प्रवचनहृदय इन सबका लक्ष्य की रोशनीम कहा जा सकता है कि अकलंकका उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है। जब तक अर्हत्पव- लक्ष्य इसी भाष्यक सूत्रपाठकी ओर था। चनहृदय आदि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं 'अल्पारम्भ परिग्रहत्वं' आदि सूत्रक विषयमें उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजी सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद की कल्पनाओंका कोई आधार नहीं माना जा वही पाठ मूल प्रतिमें हो और मुद्रितम छूट गया सकता। हो। इसके अतिरिक्त यहां मुख्य प्रश्न तो एक हम अपने पहले लेखमें भाष्य, सर्वार्थसिद्धि योगीकरणका है जो माध्यमें बराबर मिल जाता है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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