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________________ अनेकान्त [भाद्रपद, पीर निर्वाण सं.२०१६ में उल्लिखित भाष्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय-द्वारा मान्य क्या अर्थ है ? इसका नत्तर है कि यहाँ पंचत्त्व प्रस्तुत उतास्वातिके स्वोपक्षमाष्यको छोड़कर अन्य कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पाँच द्रव्योंमे न कोई भाष्य नहीं। तथा इसमें षद्रव्यका उल्लेख होकर पांच अस्तिकायों में है। उमास्वाति कहना भी मिलता है। चाहते हैं कि अस्तिकायरूपमे पाँच द्रव्य हैं; काल श्वेताम्बर आगमोंमें कालद्रव्य-सम्बन्धी दो का कथन आगे चलकर 'कालरचेत्येके सूत्र में किया मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें जायगा। द्रव्योंके विषयमें प्रश्न होनेपर कहा गया है- कहनकी आवश्यकता नहीं कि हमारे उत्ता "कह भंते ! दया पवत्ता ! गोयमा ! छ दम्बा कथनका समथन स्वयं अकलंकको राजवार्तिकमें पत्ता । तं नहा-धम्मपिकाए जाव भद्धा समये"- किया गया है। वे लिखते हैं-"वृत्तौ पंचत्ववचननात् अर्थात द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायस लेकर काल- पदव्योपदेशमाघात इति चेत्र अभिप्रायापरिज्ञानात द्रव्य तक। आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्धमें (वातिक)-स्यान्मतं वृत्तावमुक्त (वुक ? )मवस्थितानि प्रश्न होने पर कहा गया है-"किमियं भंते कालो ति धर्मादानि न हि कदाचित्पंचव व्यभिचरंति (ये अक्षपाचही गोषमा जीवा चेव अजीवा चेव"अर्थात काल- रशः भाष्यकी पक्तियाँ हैं) इति ततः षड्व्याणीत्युद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं । जीव और अजीव पदेशस्य व्याघात इति । तत्र, किं कारणं ? अभिप्राया. बे दो ही मुख्य द्रव्य हैं। काल इनकी पर्यायमात्र परिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकरणस्य-कालश्चेति है। यही मतभेद उमास्वातिने "कावरचेत्येके" सूत्र पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वयते । तदनपेशाविकृतानि में व्यक्त किया है । इसका यह मतलब नहीं उमा- पंचैव द्रव्याणि इति षड्व्योपदेशाविरोधः' । अर्थात स्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंन कहीं भी वृत्तिम जो द्रव्यपंचत्वका उल्लेख है वह कालद्रव्य कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव- की अनपेक्षाम ही है । कालका लक्षण आगे चल मजीवकी पर्याय नहीं बताया। कर अलग कहा जायगा। ___ "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषे- सिद्धन गणिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगम धार्थ "--भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है भाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंक कि "मजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" सूत्रमें उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन 'काय' शब्दका ग्रहण प्रदेशबहुत्व बतानेके लिये लिखते हैं-"सत्यजीवस्वे कालः करमान निर्दिष्टः इति और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया चेत् उच्यते-स स्वकीयमतेन व्यमित्याख्यास्यते द्रव्यहै । क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनस (?) बक्षणप्रस्ताव एव । प्रमी पुनरस्तिकायाः व्याचिक्याकायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल सिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात्"को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा? अर्थात् यहाँ केवल पाँच अस्तिकायोंका कथन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि फिर "धर्मादीनि न हि किया गया है । अजीव होने पर भी यहाँ कालका कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति” इम भाष्यकी पंक्तिका उल्लेख इमलिये नहीं किया गया कि वह एक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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