SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ জিলহ্বাজ ভিস্থ জুহু ত্যা [10-सी अगरचन्द गाहटा, सम्पादक राजस्थानी'] सारके सारे समाज द्रुतगतिसे आगे बढ़ परिस्थितिका भलीभांति मनमवार यथोचित मात्र रहे हैं, नवीन नवीन भादर्शीका अवलम्बन ग्रहण करें। जिन पुराने विचारोंसे भव काम नहीं कर उन्नति लाभ कर रहे हैं और एक-दूसरेसे चलता है उन्हें परित्याग कर नवीन मार्गप्रहय करें प्रतिस्पर्धा करते हुए घुड़दौड़-सी लगा रहे हैं, पर क्योंकि सभी काम परिस्थितिक भाधीन होते हैं। हमारे जैनसमाजको ही न मालूम किस कालराहुने परिस्थितिका मुकाबला करने वाले व्यकि प्रसित किया है कि उसकी आभा इस प्रगतिशील कितने १ भाज नहीं कल उन्हें अन्ततः उसी मार्ग यगमें भी तिमिराच्छन्न है। उसकी कुम्भकर्णी पर आना पड़ेगा जिसे परिस्थिति प्रतिसमय बलनिद्रा अब भी ज्योंकी त्यों बनी हुई है। विश्वमें बान बना रही है। जो संसारकी गतिविधिको कहाँ कैसी उन्नति हो रही है, इसके जानने विचारने मोरसे सर्वथा उदासीन रहकर उसकी उपेक्षा का की हमें तनिक भी पर्वाह नहीं है। विश्व चाहे तिरस्कार करेंगे वे पीछे रह जायंगे, और फिर कहीं भी जाय हम तो अपने वर्तमान स्थानको पछतानेसे होना भी कुछ नहीं। क्योंकि घड़सवार नहीं छोड़ेंगे, ऐसा दुराग्रह प्रतीत हो रहा है। कई व्यक्तिको पैदल कभी नहीं पहुंच सकता। इसीलिये युवक धीरे धीरे पुकार कर रहे हैं, कुछ होहल्ला जैनधर्ममें 'अनेकान्त' को मुख्य स्थान दिया गया मचा रहे हैं, पर समाजके कानों पर जूं तक नहीं है कहा गया है कि अपना दृष्टिकोण विशाल रेंगती । युवकोंको पद-पद पर विघ्न बाधाएँ उप- रखो, विरोधी के विचारोंको पचानेकी शक्ति संचय स्थित हैं, पाए दिन तिरस्कारकी बोछारें उनके करो, देश-कालकं अनुमार अपना मार्ग निधित धधकते हृदयकी ज्वालाको शान्त कर रही हैं । वे करो। पर हमें धर्म के बाहरी माधन ही ऐमी भूल अपनी हार मान कर मन मसोस कर बैठ जाते भुलैयामें डाल रहे हैं कि तत्वके प्रातरिक रहस्य हैं ! कोई नवीन आदर्श उपस्थित किया जाता है तक पहुँचने ही नहीं देते । स्वयं नया मार्ग निर्धातो स्थान-स्थान पर उसका विरोध होता है, उस रण या उपयोगी आदर्श उपस्थित करनेकी शक्ति पर गम्भीर विचार नहीं किया जाता; तब आप ही सामर्थ्य हममें कहाँ ? दूसरंक उपस्थिन किये हुए कहिये उन्नतिकी आशा क्या निराशा नहीं है ? आदर्शोका भी अनुसरण नहीं करते । न मालूम जो व्यक्ति या समाज विश्वमें जीवित रहना वह सुदिन हमारे लिये कब भावंगा जब हम चाहता है उसके लिये भावश्यक है कि तत्कालीन अग्रगामी बनकर विश्व के सामने नवीन भादर्श
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy