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अनेकान्त
[माद्रपद, बीर निर्वाच सं० २०५६
(७) 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृपतुंग हो धर्म नहीं छोड़ा मालूम पड़ता है। अथवा उसके भास्थानका और कोई हो, उसमें (९) ई० सन् ८७७ के पश्चात इसका देहावप्रतिफलित धर्म नृपतुंगका धर्म ही होना चाहिये, सान हुआ हो, अथवा यह राज्य-भारसे निवृत्त कर्ता अन्य होने पर भी उसका नहीं; अतएव हुआ हो, इस बातको निष्कृष्ट करनेके लिये योग्य उसकी अवतारिकाके पोंमें कही हुई विष्णु- साधन नहीं है। इसका पुत्र तथा इसके अनन्तर स्तुतिसे नृपतुंग वैष्णव था यह बात भली भांति गद्दी पर पाया हुआ 'अकालवर्ष' नामका दूसरा व्यक्त होती है।
कृष्ण (कमर ) अपने पूर्वजोंके धर्ममें रहसे नप(८) सोरब शि० लेख न०८५ (ई० स० तुंग आमरणान्त अपने पूर्वजोंके भागवत वैष्णव ८७७ ) में इस नृपतुंगका (और उसके शासनके धर्मका अवलंबी ही होना चाहिये । अपने अन्तिम अन्तिमवर्षेका) शासन, इस राष्ट्रकूटवंशके (इसके समयमें भी उसने जैनधर्मका अवलंबन नहीं पहिले राज्य करने वाले ) अन्य नरेशोंके शासनके किया। समान है । इससे भी उसने अपने पूर्वजोंका
शिक्षा
५ जो चाहो सुख जगत में राग-द्वेष दो छोड़।
बन्ध-विनाशक साधु-भिय, समतासे हित जोड़॥ A अपना अपने में लखो, अपना-अपना जोय ।
___अपने में अपना लखे, निश्चय शिव-पद होय ॥ श्री क्रोध बोध को क्षय करत, क्रोध करत वृष-नाश। भमा अमिय पीते रहो, चाहो आत्म-विकाश ॥
- प्रेमसागर पञ्चरत्न (प्रेम) रीठी 1 1