________________
बीरका जीवन-मार्ग
____ जब जीवमें अलौकिक जीवनकी भावना अंकित मोही प्रात्मा इनके लाभसे अपना लाभ, इनकी बहिन्में हो जाती है, चित्रित हो जाती है, साक्षात् भाव बन अपनी वृद्धि इनके हाथमें अपना हाथ, इनके बाथमें जाती है तब अात्मा श्रात्मा नहीं रहता, यह परमात्मा अपना नाश धारण करने लग गया है। हो जाता है, यह ब्रह्म नहीं रहता, परब्रह्म बन जाता इस मिथ्या धारणाके कारण जगत जीवन बन है । यह पुरुष नहीं रहता पुरुषोत्तम होजाता है। जाता है। उसमें तन्मयता पैदा हो जाती है, मोह और
इस अात्मा और परमात्म.में कितना अन्तर है। ममता जग जाती है । यह ममता जगतकी तरङ्गोंसे तरदोनोंके बीच भूल-भ्रान्ति, मिथ्यात्व-अविद्या, मोह तृष्णा गित हो अपनी तृष्णामयी तरङ्गोंसे मुला मुलाकर जीव का अथाह सागर ठाठे मार रहा है। जो धीर वीर अपने को अधिक अधिक जगत्की ओर उछालती है। इस ध्रुवलक्ष्य, सद्शान और पुरुषार्थ बलसे इस दूरीको लाँप- तरह यह संसार-चक्र आगे ही आगे चलता रहता है। कर इस पारको उस पारसे मिला देता है। मर्त्यको इस तरह यह जीव प्रकृतिसे सर्वथा मिन्न होने पर भी अमृतसे मिला देता है वह निस्संदेह सबसे बड़ा कला- प्रकृति समान देहधारी बना है। तुच्छ और सपरिमारा कार है। वह साक्षात् संसार-सेतु है, तीर्थकर है । वह बना है । नाम-रूप-कर्मवाला बना है। विविध सम्बंध लोकतिलक है, जगतबन्ध है । काल उसका द्वारपाल वाला बना है । जन्मने और मरने वाला बना है। .. है, इंद्र, चंद्र उसके चारण हैं, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति इस तरह ये मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह जन्म जय उसके उपासक हैं।
मृत्यु के संसाारक लौकिक दुःखी जीवनके मूल कारण
हैं । ये ही जीवनके महान शत्रु है। इनका विजय ही जीवन अभ्युदयकी रुकावट:--
विजय है । जिसने इन्हें जीत लिया उसने दुःख शोकको इस जीवन अभ्युदयमें भूल,अज्ञान,मोह ही सबसे बड़ी जीत लिया, जन्म मरणको जीत लिया, लोक परलोकको रुकावट है, इनके श्रावेशमें कुछका कुछ सुझाई देता जीत लिया। इनका विजेता हो वास्तवमें विजेता है, है । कहींका कहीं चला जाना होता है। जो पर है, अ. जिन है, जिनेन्द्र है अर्हन्त है। सत् है, अनात्म है वह स्व, सत् और श्रात्म बन जाता है । जो सत् और आत्म है वह भ्रम मात्र हेय बन जाता जीवन-सिद्धि का मार्ग:है । कैसी विडम्बना है । यह मिथ्यात्व कितना प्रभावशाली
___भूल भुलैय्याका अंत उसके पीछे पीछे चलनेसे नहीं है। जो बाह्य है, जड़ है, सदा बनता और बिगड़ता
होता, न उसकी असलियतसे मुँह छुपाकर बैठनेसे होता है, मिलता और बिखरता है वह पुद्गलमयी लोक ब्रह्म
है। न प्रमादमें पड़े रहनेसे होता है, वह मरीचिका है, लोक बन गया है, वह पुद्गलमयी शरीर ब्रह्म बन गया
- वह आगे ही श्रागे भागती रहती है । वह सत्र श्रोरसे है । वह पुद्गलमयी धन धान्य सम्पदा बन गया है।
। धेरै हुये है। उससे दौड़कर छुपना नहीं हो सकता ! Teमूढ श्रात्मा इनके नामको वैभव, इनके रूपको सुन्दरता इनके कर्मको बल समझने लग गया है। इनके भोगको उत्तराध्ययन ६, ३४-१५, २५, ३८, धम्मपन सुख, इनकी सन्ततिको अमरता मानने लग गया है। धर्मरसायन ॥३॥