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________________ प्रकान्त [क्षेत्र, बीर-विचाय संस उनकी दूरी क्षेत्रकी दूरी नहीं वह केवल दुर्व्यवस्थाकी पूर्ण मानन्दमय है, शुद्ध-बुद्ध निरंजन है। इनके स दूरी है। यदि विधिवत् पुरुषार्थ किया जाय तो वे भाव म्मिलनकी भावना केवल एक सुन्दर स्वप्न है, एक इनमें उदय हो सकते हैं। इनमें सिद्ध हो सकते हैं। सुविचार है, जो भक्तिका विषय हो सकता है, प्राप्तिका जब पाषाण, उत्कीर्ण होजाता है, वह पाषाण नहीं। इसकी प्राप्ति नितान्त असम्भव है। इसकी वाचा नहीं रहता, वह मूर्ति बन जाती है। वह कितनी मान- ऐसी ही मूढ और उपहास-जनक है जैसी कि चन्द्रनीय और श्रादरणीय है ? जब रेखायें सुन्यवस्थित हो प्राप्ति की। जाती है, वे रेखायें नहीं रहतीं वे चित्र बन जाती हैं। एक ओर अन्तर्वेदना इसके आलिंगनको उत्सुक वे कितनी रोचक और मनोरञ्जक हैं। जब मूकतार है,दूसरी ओर बाह्य प्रतीति इसे छुड़ानेको उद्यत है कैसी मंकार उठता है, वह तार नहीं रहता, वह राग बन उलझन है। न अप्राप्य है न प्राप्य है ! क्या किया जाता है, वह कितना मधुर और सुन्दर है। जब भा- जाये ? कर्तव्य-विमूढ-हृदय इस विस्मयमें डबकर रह बना मुखरित हो उठती है, वह भावना नहीं रहती । वह जाता है । शिर भक्तिसे झुककर झम जाता है और काव्य बन जाता है, साक्षात् भाव बन जाता है। वह कण्ठ अनायास गुञ्जार उठता है 'तु तु ही है' तु तु ही कितना महान और स्फुर्तिदायक है। • इस पाषाण और मूर्तिमें, इम रेखा और चित्रमें क्या वास्तवमें इष्ट जीवन इस जीवनसे नितान्त इस तार और रागमें, इस भावना और भावमें कितना भिन्न है ? क्या इस जीवन के लिये परमार्य जीवन असाअन्तर है। दोनोंके बीच अलक्ष्यता, मूर्छा, अव्यवस्था ध्य है ! नहीं । इष्ट जीवन इस जीवनसे भिन्न ज़रूर है, को अगाध मरुस्थल है । जो धीर अपनी अटल लक्ष्यता दूर ज़रूर है परन्तु ऐमा भिन्न नहीं, ऐमा दूर नहीं कि शान और पुरुषार्थसे इस दूरीको लाँघकर, इस सिरेको इनका सम्मेलन न हो सके । इनका भेद वस्तु-भेद नहीं इस सिरेसे मिला देता है वह कितना कुशल कलाकार है, केवल अवस्था भेद है । यह जीवन मूछित है-अचेत है। वह भूरि भरि प्रशंसा और पादरका पात्र है । चंचल है, वह जागृत है सचेत है, यह सिद्ध है वह सिद्ध है, लक्ष्मी उसके चरणोंको चूमती है, और घातक काल यह भावनामयी है वह भावमय है। यह वेदना है वह उसकी कीर्तिका रक्षक बनता है। वेदना की शान्ति है,यह वाँछा है वह वाँछाकी वस्तु है, जीवन भी एक कला है । जब तक यह आत्मामें यह उद्यम है वह उद्यमका फल है । इनकी दूरी क्षेत्रकी अभिव्यक्त नहीं होती, बाहिरसे देखने वालोंको ऐसा दूरी नहीं है , केवल दुर्व्यवस्थाकी दूरी है, वरना यह प्रतीत होता है कि वह जीवन और है और यह जीवन दोनों हर समय साथ हैं। जहाँ भावना रहती है वहीं और । वह जीवन इस जीवनसे अत्यन्त भिन्न है, अत्यंत भाव रहता है, जहाँ दर्द रहता है वहीं राहत रहती है, दूर है, अत्यन्त परे है । यह जीवन एक दीन हीन तुच्छ- भाव अभिव्यक्ति है और भावना भावरूप होनेकी शक्ति साधारण सी चीज़ है। वह जीवन अत्यन्त विलक्षण, है। क्या अभिव्यक्ति शक्तिसे पृथक हो सकती है ? कदापि महान, अचिन्तनीय ईश्वर है । यह जीवन दुःख दर्दसे नहीं । शक्ति अँकुर है और अभिव्यक्ति उसका प्रफुल्लित भरा है, अनेक त्रुटियों और दोषोंसे परिपूर्ण है। वह फल है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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