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________________ पीरका जीवनमार्ग स्वीकार करता है, उसकी प्राप्ति की सदा भावना रखता शून्य पद है, युक्तिपद है, निर्वाण पद है, इसे पा फिर है । इसलिसे यह विवादका विषय नहीं, समस्याका विषय छोड़ना नहीं होता, यह अच्युत पद है। नहीं । यह आसक्ति का विषय है, भक्ति का विषय है, यद्यपि यह जीवन सर्वथा अलौकिक है, अद्भुत और सिद्धि का विषय है। अनुपम है । यह शरीर, इन्द्रिय और मन से दूर है । ___ यह इसीका आलोक है जिसे देखनेको जीवन तरस इस लोककी वस्तु नहीं। परन्तु भूल, अशान, मोहके रहा है, जिसे पानेको वाञ्छानों से घिरा है, जिसे सिद्ध कारण कस्तुरी मृगके समान, यह जीव इसकी धारणा करनेको उद्यम और पुरुषार्थ से भरा है। यह इसीका जगत में करता है, इसे व्यर्थ ही वहाँ हूँढता है, पालोक है जो जीवनको दुःखदर्द सहनेको दृढ बनाता वहाँ न पाकर व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है। है, आपद-विपदात्रों में से गुज़रनेको साहसी बनाता है, असफलता निराशाओंके लाँघने को बलवान बनाता इष्ट जीवन साध्य जीवन है :है, मर मर कर जिन्दा रहने को समर्थ बनाता है। इस भोले जीव को पता नहीं कि, वह चीज़ जिस यही वास्तव में निर्बलका बल है। निराशामयकी श्राशा का श्रालोक इसे उद्विग्न बना रहा है, बाहिर नहीं है। निस्सहायका सहारा है। दीन-दलितका दिलासा है, अन्दर है । दूर नहीं, निकट है। दौरंगी नहीं,एक रस है। जीवनका जीवन है । इस श्रालोकके बिना जीवन एक यह जीवन स्वयं प्रात्मलोक में बसा है। प्रात्माकी निरी दुःख-दर्द भरी कहानी है। इसका श्राखोक ही अपनी अन्तर्वस्तु है यह इसमें ऐसी ही छिपी है जैसे अनजीवनके लिये हित अहित, सत्य-अमत्य, हेय-उपादेयका गढ पाषाणमें मूर्ति, बिखरी रेखाओं में चित्र, वीणाके चुपनिश्चय करता रहता है; युक्त अयुक्त, उचित अनुचित, चाप तारों में राग, अचेत भावना में काव्य ये भाव जब कर्तव्य-अकर्तव्यका निर्णय करता रहता है; हित-प्राप्ति तक इन पदार्थों में अभिव्यक्त नहीं होते, दिखाई नहीं अहित-परिहारके लिये प्रेरणा करता रहता है। यही देते, ये वहाँ सोये पड़े रहते हैं। बाहिरसे देखनेवालों जीवनका निश्चयकार है, निर्णयकार है, प्राजाकार है, को ऐमा मालूम होता है कि यह भाव मिन है, और स्वामी है, ईश्वर है, विधाता है। यह पदार्थ भिन्न है, यह भाव और हैं. वह पदार्थ और यदि यह जीवन एकबार मिल जाये तो और कुछ है। ये भाव महान है, विलक्षण हैं, दूर है, और वह पदार्थ पाना बाकी नहीं रहता, यह परमार्थ पद है, परमेष्टि तुच्छ है, हीन है साधारण है । भला इनका उनसे क्या पद है । इसे सिद्ध कर और कुछ सिद्ध करना शेष नहीं सम्बन्ध, क्या तुलना ? ऐसे ऐसे इन पर हजार न्योरहता, यह सिद्ध पद है, कृत्कृत्य पद है। इससे परे छावर हो सकते हैं। ये भाव दुर्लभ है, अमूल्य है। इससे ऊपर और कुछ नहीं रहता । यह परमपद है, अमाध्य हैं, अपाप्य हैं। परमात्म-पद है । इसे पा समस्त विकल्प, द्विधा, परन्तु ये भाव इन पदार्थोसे ऐसे भिन्न नहीं, ऐसे वाञ्छा, तृष्णाका अन्त होजाता है यह कैवल्य दूर नहीं कि वह इनमें प्रगट ही न हो सकें। उनकी पद है। इसकी प्राप्ति में समस्त वेदना, संजा, विभिन्नता जरूर है परन्तु वह विमित्रता वास्तविक संस्कार, विज्ञान, और रूपका अभाव होनाता है. यह विभिनता नहीं, यह केवल अवस्थाकी विभिनता है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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