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बनेकान्त
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वीर-विचार सं.
*त अपने ही स्थानमें डटकर खड़ा हो जानेसे इनका निरोध करनेसे होता है-नका संवर करनेसे
है, उसका सामना करनेसे होता है, उसका तार होता है। इन्हें बाह्य उद्योगोंसे हटा पारमार्थिक उद्योनार करनेसे होता है, उसका तिरस्कार करनेसे होता है। गोंमें लगानेसे होता है। इस तरह संसारका अन्त
अचानका अन्त उसकी सुझाई हुई बातोंको प्रवृत्ति मार्ग से नहीं होता निवृत्ति मार्गसे होता है। मानने से नहीं होता, न संशयमें पड़े रहनेसे होता है, न परन्त जीवन-सिद्धिका मार्ग केवल इतना ही नहीं
मरिचत गति रखनेसे होता है। उसका अन्त उसके प ति मंडर. और सन्यास पी मन्तव्योंको सादात् करनेसे होता है, उनका अनुसन्धान नहीं है। यह विधिमुख्य भी है। निषेध, संवर, सन्यास और परीक्षा करनेसे होता है, उनमें निज परका, सत्य
प्रात्म-साधनाकी पहली सीढ़ी है। साधककी पाद. नसत्वका हित-अहितका विवेक करनेसे होता है। पीठिका है । इसमें अभ्यस्त होनेसे आत्मा साक्षाद सिद्ध
मोहका अन्त मुग्ध भावोंमें तल्लीन रहनेसे नहीं मार्ग पर आरूढ़ होनेके लिये समर्थ हो जाता है। होता ने उन्हें चुपचुपाते हृदयमें छुपाये रहनेसे होता है। अबाध और निर्विघ्न हो जाता है। वह स्थिर, उज्वल उसको अन्त मुग्ध भावोंकी मदता निरखनेसे होता है, और शांत हो जाता है। परन्तु इतना मात्र होकर उनकी मूढ़ताकी निन्दा, आलोचना प्रायश्चित करनेसे रह जानेसे काम नहीं चलता । इससे मिथ्यात्व, अज्ञान
ममकार ग्रंथियोंका अन्त उन्हें पुष्ट करनेसे और मोहका समूल नाश नहीं हो जाता। वे अनादिनही होता; उन्हें शिथिल करनेसे होता है । वासनाओंका कालसे अभ्यासमें आते आते संस्कार, संशा, और अन्त भौगसे नहीं होता; संयमसे होता है। इच्छाओंका भाव बन गये है। अतः चेतनाकी गहराईमें उतर कर अन्त परिग्रहसे नहीं होता, संयमसे होता है। बैठ गये है । वे दूसरा जीवन बन गये हैं। वे किसी देणमोका अन्त तृतिसे नहीं होता, त्यागसे होता है। भी समय फूट निकलते हैं। वे निष्कारण मी आत्माव अन्त वैरशोधनसे नहीं होता, क्षमासे होता है। को उद्विग्न, भ्रान्त और प्रशान्त बना देते हैं । जब
भव-भ्रमणका अन्त बाबरमणसे नहीं होता, तक इनका उच्छेद नहीं होता, संसार चक्रका अन्त अन्तः रमण से होता है। इस नाम-रूप-कर्मात्मक नहीं होता। बयत का अन्त उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे नहीं इन संस्कारोंको निर्मल करने के लिये निषेधके साथ
का उन तन्तुओंके विच्छेदसे होता है जिन के द्वारा विधिको जोड़ना होगा। प्रमाद छोड़ना होगा। सावजीवन जगतके साथ बँधा है। यह विच्छेद-मन वचन
धान और जागरुक रहना होगा । समस्त परम्परागत आपके कर्म-धर्म विधान करनेसे नहीं होता, दण्ड दण्ड
भावों, संज्ञाओं और वृत्तियोंसे अपनेको पृथक् करना विधान करनेसे होता है, इन गुप्त करनेसे होता है।
होगा । इन्द्रिय और मनको बाहिरसे हटा अन्दर लेजाना मनोगुप्ति, पचनगुप्ति, काय गुप्ति पालनेसे होता है।
होगा । अपने ही में प्रापको लाना होगा। ध्यानस्य पिता, १२, १।
होना होगा। मसिमनिकाय। चार्याधिगम सूत्र.....
• समाधिशतक॥१५॥