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________________ वर्ष ३, किरण २] बुद्धि हत्याका कारखाना - - अपने भाग्यका माप विधाता है । उसे काल्पनिक भाग्य लुक जाना जान बूझकर विष पी लेना, बचोंको पढ़ने न पर भरोसा नहीं रखना चाहिये । ऐतरेय ब्राह्मणमें भेजकर खण्ठ रखना क्या उचित होगा! पुरुषार्थीके लिये लिखा है: संसार में असम्भव कुछ भी नहीं है । प्रयत्नवादी पुरुषके आस्ते भग आ चीनस्योद्धवस्तिष्ठति तिष्ठतः।। आगे भाग्य हाथ बाँधे खड़ा रहता है। प्रयबसे ही शेने निपद्यमानस्य वराति चरतो भाः ॥चरैवेति।। देवोंको अमृनकी प्राप्ति हुई । अतः हे राम ! नपुंसकता उत्पन्न करनेवाले भाग्यवादको छोड़कर नवजीवन उत्पा अर्थात् जो मनुष्य घरमें बैठा रहता है, उसका भाग्य करनेवाले प्रयत्नवादको अपनानो; इसीमें तुम्हारा भी बैठ जाता है; जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य खड़ा कल्याण है।" हो जाना है; जो सोया रहता है, उसका भाग्य मो समर्थ रामदासने भी कहा है:-"प्रयत्न देवता है जाता है भोर जो चलता फिरता है, उसका भाग्य भी और भाग्य दैत्य है। इसलिये प्रयत्नदेवकी उपासना चलने फिरने लगता है। इसलिये उद्योग करो, पुरुषार्थी करना ही श्रेयस्कर है।" मम्भव है कि, प्रयत्नरूपी देवबनो। ताकी आराधना करते हुए भाग्यरूपी दैत्य वहाँ पहुँच ___ यदि ग़ज़नी, गोरी, हुमायू या अकबर भाग्य पर कर विष्न करे; इसलिये उस भाग्यरूपी देव्यपशुको भरोमा रखकर बैठ रहते, तो मुसलमान ग्यारह सौ पकडकर प्रपरन देवके आगे उसकी बलि चढ़ा देनी वोनक भारतका शासन न कर सकने और यदि अंग्रेज़ चाहिये । भेड़ बकरे मारने से शक्ति-चामुण्डा प्रपा नहीं भाग्यदेवकी शरण में चले जाते, तो दिल्लीपर अपना होती, किन्तु अवतारवाद, देव -भाग्य-बाद जैसे झण्डा फहरा न सकते । उद्योगियों के घर ऋद्धि सिद्धियं प्रबल पशुओंको काट गिराने में ही वह सन्तुष्ट होकर पानी भरा करती हैं। योगवामिष्ट में वसिष्ठ श्रीराचन्द्रमं मनुष्यजानिका कल्याण माधन करनी है । जो बुद्धिमान् कहने हैं:-"भाग्य तो मूों और पालसियोंकी गही मनु य प्रयन्नदेवको मिद्धकर लेना है, वह मन्युमोंके हुई एक काल्पनिक वस्तु है । उद्योगमें ही भाग्य निहिन बुद्धिहन्याक कारखानेको अन्धश्रद्धाकी अन्धी गुहातक । है। उद्योग न हो, तो भाग्यका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। पहुँच ही नहीं पाता और यदि किसी कारणमे पहुँच पूर्व कर्म हा प्रारब्ध है और वह प्रबल पुरुषार्थय नष्ट भी जाना है, तो वे रोकटोक उससे छुटकारा भी पा किया जा सकता है। उद्योग प्रत्यक्ष है और भाग्य जाता है। अनुमान है । अनुमानकी अपेक्षा प्रत्यक्षका महत्व अ- झबु लोग भावुकों को अपने कारखाने में ले जाकर, धिक है । उद्योगमे स्वराज्य, साम्राज्य ही क्या, इन्द्रपद उनपे भाग्यवादी तपस्या कराकर, जब परिक्रम करनेने भी प्राप्त हो सकता है । राह-चलना भिखारी यदि राजा हैं, नब उन्हें तीसरे प्रकोष्ठकी कलिकल्पनाकी चरग्वी हो जाय, या किसी गरीबकी लड़की महारानी बन जाय, (मशीन ) पर चढ़ा देते हैं । पहले प्रकोष्ठ में मनुष्य नो वह उसके पूर्वकृत मरकर्मोका फल है। यदि यह अन्धश्रद्ध बनना है, दूसरेमें निकम्मा-- पुरुषार्थहीन--- कहा जाय कि, जो कुछ होता है, भाग्यम ही होना है; हो जाता है और नीमरेमें बने या बनखोरेका रूप नो भाग्यपर निर्भर रहकर भागमें कूद पड़ना, पहाइमे धारण कर लेता है। यों अच्छी तरह उसकी बुद्धिहत्या
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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