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अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
किया। कौटिल्यने प्रार्थशास्त्रकी रचना की, गैलीलियोने मबुओंके बुद्धिहत्याके कारखानेमेंजब कोई "मांख विद्युत् शक्तिका पता लगाया, न्यूटनने गुरुत्वाकर्षणका का अन्धा गाँउका पूरा" पहुँच जाता है, तब पहले ही नियम खोज निकाला, ये सब प्रकृतिक देवताओंके प्रकोष्ठ (कमरे) में उसे अवतारवादकी दीक्षा देकर सच्चे उपासक थे। फिर भी मनुष्य ही थे। यदि ईश्वर दीक्षित उर्फ पास्मीय बना लिया जाया है। दीक्षा लेते को मान लिया जाय, तो वह भी स्थूल देह धारण ही वह अन्धश्रद्धाकी अन्धकारमयी एकान्त गुहामें प्रवेश करके ही प्राकृतिका उपभोग करता है और इस विचार- करनेका अधिकारी बनता है । वह गुहा उस कारखानेसे हमें भी ईश्वर होनेका पूर्ण अधिकार है। तब हम का दूसरा प्रकोष्ठ है। उसमें ले जाकर उस साधकको नाखों वर्षोंतक ईश्वरके अवतार प्रतीक्षा करते हुए दुःख भाग्यदेवका साक्षात् दर्शन कराया जाता है और सदा में क्यों पड़े रहें?
जपने के लिये यह मन्त्र रटा दिया जाता है:पुराणों में दस अवतारोंका वर्णन है। नौ अवतार "व्हेहे की जो राम रचि राखा । होगये हैं, बसवां बाकी है। उस दमवेको भी हम बाकी को कर तर्क बढ़ावहि साखा ॥" क्यों बचने दें ? कलंकी अवतार घोड़े पर सवार है, इस मन्त्रके जपने ही उसे 'नैष्कर्म्यसिद्धि' प्राप्त हो हाथ में तलवार लिये है और म्लेच्छोंका संहार कर रहा जाती है अर्थात् अपने अधःपातके लिये वह अकर्मण्य है। इसी स्वरूप में हम शिवाजी का भी चित्र देखते हैं निकम्मा 'काठका उल्लू' बन जाता है। उसमें फिर यह नब क्यों न मान लें कि, शिवाजीके साथ ही सब सोचनेकी शक्तिही नहीं रहती कि, भाग्य भी प्रयत्न अवतार समास हो गये हैं और अब हमें अपने उत्कर्षके (कर्म) का ही एक फल है। मार्ग पर भाप ही अग्रसर होना है ? अवतारवाद कर्मके तीन विभाग हैं,-मञ्चित, प्रारब्ध. क्रियमन्बुओंने निर्माण किया है और सभी झब्ब अपने माण । इस जन्म या पूर्व जन्मोंमें जो कर्म हम कर चुके मापको ईश्वरके अवतार होने की घोषणा करते हैं । इस हों, वे मञ्चित हैं । उनमे में जिनका भोग प्रारम्भ हो से उनकी तो बन पाती है, किन्तु भोली-भाली जनता गया हो, व प्रारब्ध हैं और जो भोग रहे हैं, वे क्रियअकारण ठगी जाती है। अतः जब कि, हमें संसार में माण हैं। परन्तु क्रियमाण प्रारब्धका ही परिणाम हैं, सम्मानके साथ जीना है, तब मनमें दौर्बल्य उत्पन्न इसलिये लोकमान्य तिलक और वेदान्तसूत्रोंने संचिनकरनेवाले अवतारवादको भी पूर्वोक्त दो ऋषियोंके साथ के हो प्रारब्ध और अनारच ये दो भेद माने हैं। संचित हिमालयकी गहरी गुहा में बन्द कर देना नितान्न पाव- में से जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध और श्यक है। ईश्वर न कहीं जाता है, और न पाता है। जिनका भोग शेष है वे अनारब्ध हैं । निष्कामकर्म योगस
और वह सर्वन्यापक है, प्राणिमात्रके अन्तःकरण में स्थित अथवा ज्ञानसे प्रारब्धका प्रभाव हटाया जासकता है और है और चैतन्यरूपसे सर्वत्र व्याप्त है। उनके आनेकी अनारब्ध दग्ध किये जा सकते हैं। क्योंकि मनुष्य प्रवाह भवतरित होनेकी-बाट जोहना मूर्खता है। मनुष्यको में पड़े हुए लकड़ी के लट्टे के समान नहीं है, किन्तु कर्म अपना उद्धार भाप ही कर लेना होगा। "उद्धरंदत्म- करनेमें स्वतन्त्र है। उसमें इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और नात्मानम्" यही गीताका उपदेश है।
ज्ञानशक्ति है । वह पशुकी तरह पराधीन नहीं, किन्तु