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वर्ष ३, किरण.]
परवार बातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश
जातियोंमें खतौनी करदी जाय । उस बेचारेने यह वे किसी भी प्राँतके हों, यह गोत्र-परम्परा अखण्डरूपसे सोननेकी भी आवश्यकता नहीं समझी कि जिस सुदूर चली आ रही है । महाभारतके अनुसार मूल गोत्र चार कर्नाटकमे कुंदकुदादि हुए हैं वहाँ कभी पल्लीवाल, हैं-अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु ॐ। इन्हींसे चौसखों और गोला पूर्वोकी छाया भी न पड़ी होगी। तमाम कुलों और लोगोंकी उत्पत्ति हुई है और आगे इसके सिवाय और किसी प्राचीन गुरु परम्परामें भी चलकर इनकी संख्या हजारों पर पहुंच गई है । गुरुओंकी इन जातियोंका उल्लेख नहीं।
ज्यों ज्यों श्राबादी बढ़ती गई त्यो त्यों कुलों और परिजैन जातियोंकी उत्पत्तिकी सारी दन्त कथाश्रांमें वारोंकी संख्या बढ़ने लगी। किसी कुलमें यदि कोई प्राःय एक ही स्वर सुनाई देता है और वह यह कि विशिष्ट पुरुष हुआ, तो उसके नामसे एक अलग कुल अमुक जैनाचार्यने अमुक नगरके तमाम लोगोंको जैन या गोत्र प्रख्यात हो गया। उसके बाद आगे की पीढ़िधर्मकी दीक्षा दे दी और तब उस नगरके नामसे अमुक योमे और कोई हो गया, तो उसका भी जुदा गोत्र जातिका नाम करण होगया और उक्त सब श्राचार्य प्रसिद्ध होगया । इसी तरह यह संख्या बढ़ी है। पहली शताब्दी या उसके आम पासके बतलाये जाते हैं परन्तु ये सब दन्तकथाये ही हैं, और जब तक कोई नत्रियोंकी गोत्र परम्पराके विषयमें इतिहासज्ञोंका प्राचीन प्रमाण न मिले तब तक इनपर विश्वाम नहीं
कथन है कि वह बीचमें शायद बौद्धकालमें विचित्र हो किया जा सकता। यह ठीक है कि कभी जत्थके जत्थे
गई और उसके बाद जब वर्णव्यवस्था फिर कायम भी जैनी बने होंगे, परन्तु यह समझमें नहीं आना कि
हुई, तो क्षत्रियोंने अपने पुरोहितोंके गोत्र धारण कर उनमें मभी जातियोंके ऊँच नीन लोग होंगे और वे सब
लिये । अर्थात् पुरोहितका जो गोत्र था वही उनका हो के सब एक ग्रामके नामकी किमी जातिमें कैसे परिणत
गया । विज्ञानेश्वरने मिताक्षरामें यही कहा है कि क्षत्रिहो गये होंगे। क्योंकि ऐसी प्रायः मभी जातियोमे जो सामगोत्र-प्रबर नहीं है. पुरोहितोंके जो है वही स्थानोंके नाममे बनी हैं जैनी-अजैनी दोनों ही धर्मोंके
उनके हैं । परन्तु बहुतसे विद्वानोंका इस विषयमें मतलोग अब भी मिलते हैं। जैनी अजैनी भी बनते रहे हैं
भेद है। वैश्योंके विषयमें भी यही कहा जाता है कि और अजैनी जैनी।
उनकी गोत्र-परम्परा नष्ट हो चुकी थी और पुरोहितोंके गोत्र
गोत्र उन्होंने भी ग्रहण कर लिये होंगे। परन्तु अग्रवाल परवार जातिके बारह गोत्र है, परवारोंके इतिहासके
आदि जातियोंके गोत्र देखने से यह बात गलत मालूम लेखकके लिये जरूरी है कि गोत्रों के बारेमें भी वह लिखे।
होती है। उनके गोत्र पुरोहितोंसे जुदे हैं। गोत्रोंके विषयमें कुछ लिखने के पहले हमे यह जानना
बहुत-सी वैश्य जातियाँ ऐसी भी हैं जिनमें गोत्र चाहिये कि गोत्र चीज क्या है ? वैयाकरण पाणिनिने । गोत्रका लक्षण किया है 'मपत्वं पौत्रमभूति गोत्रम् । ॐ शांतिपर्व भन्माष २६ । अर्थात् पौत्रसे शुरू करके संतति या वंशजोंको गोत्र - गोवाणी सहमावि प्रयुताम्यवानि कहते हैं । वेद कालसे लेकर अब तक बामणोंमें, चाहे
-प्रपरमंबरी।
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