SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वैसाख, बीरनिर्वाच सं०२४६६ स्थानों परसे जातियाँ बन जाने पर जब उनका प्रतिपादन करते हैं और अनुलोम-विवाहोंसे अर्थात् फैलाव हुआ और वे दूर दूर तक फैल गई, तब यह ऊपरके बर्ण बालोंका नीचैकी वर्णकी कन्याके साथ भी लिखा जाने लगा कि अमुक जातिका अमुक स्थान सम्बन्ध होनेसे वर्णसंकरता होती ही है और यदि 'जाति में उत्पन्न हुआ या रहने वाला । जिस तरह नेमि- संकरता' में जातिका अर्थ वर्तमान जातियाँ हैं, तो वे निर्वाणके कर्ता वाग्मटने अपनेको 'भडियपुरोत्पन: तो इन्द्रनन्दिके कथनानुसार उस समय थी ही नहीं। प्राग्वाटकुलाशाविना' लिखा है अथवा गिरनारपर्वतके श्रादिपुराणके मतसे तो वर्णसंकरताका अर्थ वृत्ति या नेमिनाथ मन्दिरकी सं० १२८८ की प्रशस्तिमें वस्तुपाल- पेशेको बदलना है, अर्थात् किसी वर्ण के अादमीका तेजपालको प्रवरितपुरवास्तम्प-भाग्याटाम्बयप्रसूत' अपना पेशा छोड़ कर दूसरे वर्णका पेशा करने लगना लिखा है । अर्थात् अणहिलपुरके निवासी प्राग्वाट है और उस समय इस संकरताको रोकना रानाका जातिके । इसके बाद और आगे चलकर जातियोंके धर्म था + । ग़रज़ यह कि जातियोंके स्थापित करने गोत्रादि भी लिखे जाने लगे। और वर्ण संकरताको मिटाने में कोई कारण-कार्य-मम्बन्ध जातियोंकी उत्पत्तिके समयके बारेमें अन्य समझमें नहीं आता है। मतोंका खण्डन एक और प्रमाण जातियोंकी प्राचीनताके विषयमें चौदहवीं सदीके महारक इन्द्रनन्दिने अपने नीति- यह दिया जाता है कि चकि आचार्य गुप्तिगुस परवार मारमें लिखा है कि विक्रमादित्य और भद्रबाहुके स्वर्ग- थे, कुन्दकुन्दस्वामी पल्लीवाल थे, उनके गुरु जिनचद्र गत होने पर जब प्रजा स्वच्छन्दचारिणी होगई तब चौसखे परवार, वज्रनन्दि गोलापर्व और लोहाचार्य जातिसंकरतासे डरनेवाले महर्द्धिकोंने सबके उपकारके लमच थे, इसलिए सिद्ध होता है कि कुन्दकुदाचार्यस लिए प्रामादिके नामसे जातियाँ बनाई , परन्तु इसके भी पहले जातियाँ थी । परन्तु जिम पटावलीके श्राधार लिए कोई विश्वासयोग्य प्रमाण नहीं है। विक्रम या सं यह बात कही जाती है उनकी प्रामाणिकतामें घोर भद्रबाहुका समय भी एक नहीं है । इसके सिवाय मन्देह है और वह भी चौदहवीं मदीसे पहलेकी नहीं जातियोंका संकर न हो जाय अर्थात् मिश्रण न होजाय, है। उसके कर्ताको शायद इसके सिवाय कोई धुन ही इसका अर्थ भी कुछ समझ नहीं आता है | जाति नहीं रही है, कि बड़े बड़े आचार्योंकी खास खास सकरताका अर्थ यदि वर्णसंकरता है तब तो प्राचीन .पादिपराण पर्व १६ खोक २४०।। जैनधर्म इसका विरोधी नहीं था, क्योंकि भगवजिनसन ___+स्वामिमा एत्तिमुकम्प यस्त्वया वृत्तिमाचरेत । अपने आदिपुराणमें अनुलोम-विवाहोंका स्पष्ट रूपसे सपायिवैनियंतची वसंकीविरम्यया । 1 एपिमाविमा ईलि जिद पृ. १५०...। -पर्व लोक २८ । स्व गते विकमा मदनादौ योगिनि। अर्थात् हुदा हुदा बोकी बो वृत्ति (पेश) प्रा स्वचारिलो बभूवुः पापमोदिताः । नियत की गई है, उसे छोड़कर दूसरे वर्षकी पत्ति करने तथा मोपकाराव जाति संकमीमिः। नगयेको राजा लोग रो, अन्यथा पर्यसंरता हो महर्दिक परंप प्रामामिला अपम् ।-नीतिसार। बावगी। --- -- - -
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy