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चासोक अन्तरात्मामें करती है। पहिली बाख लोकको उचगति-नीचगतिके करने वाले मास महान् और पाशावान मानती है। दूसरी 'अन्सालोतको. संसारका हेतु है, पारमा सरका मोदक है, महान् और प्राशावान कराती है। पहिली पाखालोकके भात्मा से प्रात्याका मित्र है, बाराही मामीका प्रति कामना, आसक्ति, परिग्रहका व्यवहार करना हैx. सिखाती है। दूसरी बास लोकके प्रति प्रशमता, उदा. । पहिलेके लिए दाखका कारण बाम शक्तिका सीनता और त्यागका वाव बनाती है। . प्रकोप है, देवी-देवताओंका प्रकोप है, ईश्वरका प्रकोप
पहिलीकी भावना है धन-धान्यकी प्राप्ति, सन्तानकी है, दूसरीके लिए दुःखका कारण स्वयं प्रामाको दूषित प्रालि, दीर्घ आयुकी प्राप्ति, प्रारोग्यकी प्राप्ति, पितृलोक वृचि है, उसकी अपनी विपरीत श्रद्धा, प्रशन प्रविधा, और स्वर्ग खोककी प्राप्ति । दूसरीकी भावना है सत् मोह-तृष्णा है। को प्राप्ति, शानकी प्राप्ति, उचताकी प्राप्ति, अनन्तकी प्राति, अक्षय सुखकी प्राप्ति, अमृतकी प्राप्ति, अपवर्ग धर्मका मार्ग लोक मार्गसे भिम की प्राप्ति ।
पहिली के लिए दुःख निवृत्तिका उपाय दुःखविस्मृति पहिली के लिये प्रश्न हल करनेका साधन, तत्व- है, प्रज्ञान है, निद्रा-तन्द्रा है, सुरापान है। दूसरीके निर्णय करने का प्रमाण इन्द्रिय-ज्ञान है, बुद्धि-जान है, लिए दुःख निवृतिका उपाय शान है; दुःख को साक्षात् दुसरीके लिये जाननेका साधन, निर्णमरनेका प्रमाण करना है, दुःख के कारणोंको बानना है, उन कारणोंका भन्ने , भुशान है।
विच्छेद करना है। पहिलो के लिए जीवनका विधाता, मास्मासे भिन्न, पहिली के लिए दुःख निवृत्तिका उपाय बाम शमात्मासि बाहिर प्राकृतिक शक्ति है-शक्तियोंके अधि- क्तियों-देवी-देवताओं ईश्वरकी याचना-प्रार्थना है, ठाता देवी देवता है,देवी देवताओंके नायक ईश्वर है। पूजा वंदना है, भक्ति-उपासना है। दूसरी के लिए दुःख, दूसरीके लिए जीवनका विधाता-जीवनका अधिष्ठाता निवृत्तिका उपाय प्रात्म-विश्वास है, प्रात्म-पुरुषार्थ स्वयं प्रात्मा है, आत्माके ही शुभाशुभ भाव , शुभा- है, आत्म-शक्ति है। जो श्रात्माकी शरण जाता है, राम कर्म है । ये ही जीवनमें सुख दुःख, उत्थान-पतन प्रास्माके लिए ही सब कुछ समर्पण करता है, वह पर्व...... .
दुख नहीं पता है। जो पास देवी देवताओंकी उपा१०.११. । अथर्व १३.१ । ... . .धम्मपद ॥ ११॥ सामायिकपाट ॥१०॥ (4) असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, समयसार ॥ १०॥ कोशिकी. उप. १.३, .
सत्योमा मयुतं गमवि- उप०८.१४ उप. १.५, ७, वेताश्वतर. उप... (भा) भरतस्य देवधारयो भूषासम्" x गीता १.५ निवप्रयंचय ...
-व. उप० १.५.१. शिक्षाप्रेम ॥ १॥