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________________ ww , बाधा, बोड tarif . अर्थात् जो मष्टि , स्थित है, स्थिर धुदि मि और जीवन ही फोनसा है । इस इन्द्रिय-शानसे है, समदी है, योगी है, प्रतिक्ष्य-प्रथम-सवेग-अनु. मिन और शाने ही कोनसा है । इस लोकको छोड़ कर कम्पा गुण वाला है। निशंकितं आदि प्रष्ट अङ्ग वाला और किधर जाये इस जीवनको छोड़कर और किधर त्रिमूढता और अष्ट मद रहित है, त्रिशल्पसे खाली है, लखाये इस शानको छोड़कर और किसका सहारा ले ? मैत्री-प्रमोद-करुणा, माध्यस्थ भावसे भरा है, अविरोध इस तरह देखता जानता हुआ यह बहिरात्मा बना है। रूपसे धर्म-अर्थ-काम-पुरुषायोकी सेवा करने वाला है, यह नास्तिक बना है । अपसे विमुख बना है । बही धर्म-मार्ग पर चल सकता है, वही वास्तवमें जो इस प्रकार परासक्तिमें पड़ा है, परासक्ति में रत धर्मात्मा है, वही सुखका अधिकारी है। है परासक्ति में प्रसन्न है, उसके लिए दुःखको साक्षात् करना, दुखिके कारणोंको समझना, दुख-निरोधका लोक विमूह है: संकल्प करना, दुःख निरोधके मार्ग पर लगना बहुत जहाँ धर्म-तत्व इतना कम है, धर्म मार्ग इतना कठिन है * । जो इस प्रकार इन्द्रिय बोधको ही बोध कठिन... वहाँ यह लोक मन्या है, यहाँ देखने वाले मानता है, इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही वस्तु मानता है, उसके बहुत थोड़े है। यहाँ जीवन अनादिकी भूलभान्तिसे लिये अदृष्टमें विश्वास करना, अदृष्ट के लिये उद्यम ढका है, अविद्यासे पकड़ा हुआ है, मोहसे प्रसा हुआ करना बहुत मुशकिल है। है, यह अपनेको भुसाकर परका बना हुआ है, अपनेको " न देखकर बाहिरको देख रहा है, अपकेको म टोलकर धर्मष्टि लोक रहिसे भिव है:बाहिरको रटोल रहा है, अपनेको पकड कर महिरको लोककी इस अष्टिमें और धर्मकी दृष्टि में बड़ा अंतर पकड़ रहा है। इसकी सारी सचि, सारी बासकि,सारी है-जमीन शास्मानका अन्तर है। इसमें यदि कोई शक्ति बाहिरकी ओर लगी हुई है, सारी इन्द्रियाँ बाहिर समानता है तो केवल इतनी कि दोनोंका अन्तिम उद्देश्य को खुली हुई है, सारी बुद्धि बाहिरमें धसी हुई है, सारे एक है-दुख-निवृत्ति, सुख-पामि । इसके अतिरिक्त अवयव बाहिरको फैले हुए । दोनों में विभिन्नवा ही विभिन्नताहै। दोनोंको मुख-दुख - इसके लिये इस दिखाई देने वाले लोकसे भिन की मीमांसा भिन्न है। दोनोका निदान भिन्न है। दोनों और लोक ही कौनसा है ? इस सुख दुःख पाले जीवन्से का निदान-साधन भिन्न है। दोनोंकी चिकित्सा मिन है -~~- दोनोकी चिकित्सा-विधि भिन्न है और दोनोंके स्वास्थ्यभवभूतो अब बोको बगुलेप विपस्सति मार्ग मित्र है। . पहिली रष्टि श्रामन्द, सुन्दरता, बैमष और शक्ति () "पराखि खानि स्तृवत् स्वयम्भूस्तस्मात् का पालोक बाह्य जगतमें करती है, दूसरी इनका . परा पश्यति नान्तदास्मन - 43. उप..... - (भा) पहिरास्मेन्धिबहारैरामनामपरामुः । 3. उप० २. ; वैत. उप० १. ६... स्फुरितः स्वात्मनो मेहमात्मत्वेगाम्यवस्यति ॥ * मोर प्राभूत ॥८ ॥ बोगसार ॥ .॥ -समाषितं . * मभिमनिकाप स सुस।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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