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________________ ५१८ भनेकान्त [येष्ठ-प्रवाह, वीर-निर्वाण सं० २४६६ का । उसने अपने प्रियधर्म को फैलाने के लिए यही संवरण करना पड़ता है। यह बात निर्विवाद बहुत प्रबल किया था। परिशिष्ट पर्वके कय- सिद्ध है कि राजगृह, पाटलिपुत्र भादि पुरातन मानुसार सम्प्रतिने अनार्य देशोंमें भी जैन-धर्म स्थानोंसे जैनधर्मका बहुत पुराना अभेद सम्बन्ध का प्रचार किया था। पानशाला-निर्माण आदि है। १९३७ के फरवरी महीनेमें पटना जंक्सनसे अनेक लोकोपकारक कार्य भी जैनधर्मके प्रचार एक मीलकी दूरी पर लोहनीपुर मुहल्लेमें जो दो में सम्प्रतिके पर्याप्त सहायक हुए हैं। दिगम्बर जैन मूर्तियाँ ग्वोदते वक मिली हैं उनके __वृहस्पतिमित्रको जीतकर मगधको वशमें लाने सम्बन्धमें पुरातत्वके अनन्य मर्मज्ञ स्वर्गीय डा. वाला सम्राट् खारवेल भी कट्टर जैन-धर्मावलम्वी काशीप्रसाद जायसवालका कहना है कि भारतथा। सारखेलने जैनधर्मकी बहुत बड़ी सेवा की वर्षमें आजतककी उपलब्ध मूर्तियोंमें ये सबसे थी। हाथीगुफा वाले शिलालेखमें खारवेलको प्राचीन हैं । जायसवाल महोदय इन मूर्तियोंको 'धर्मराज' एवं 'मिथुराज' कहा गया है। कलिंगके ईसासे ३०० वर्ष पूर्वकी मौर्यकालीन मानते हैं। कुमारी पर्वतपर खारवेल और उसकी रानीने कुलहा पहाड़ (हजारी बाग) श्राक्क पहाड़ अनेक मन्दिर तथा विहार बनवाये थे। खासकर (गया), पचार पहाड़ ( गया ) आदि स्थानों की सम्राट्के द्वारा निर्मित वहाँकी गुफाओंका मल्य खोज की बड़ी आवश्यकता है। संभव है इन अत्यधिक है'। स्थानोंकी खोजसे कुछ नयी बातें इतिहासको उपलब्ध हों। कुछ विद्वानोंका खयाल है कि कुलहा पादके विहारमें शासन करनेवाले गुप्तवंश पहाड़ भगवान् शीतलनाथ तीर्थकर की तपोभूमि मादि अन्यान्य राजाओंका जैनधर्मसे क्या संबंध रहा, इस बात को खुलासा करनेसे लेखका कलेवर विशेष बढ़ जायगा। इसलिये अपनी इस इच्छाका २२ देखो, 'जैन ऐन्टीकेरी' भाग ३, ने० १४१७-१८ २३ देखो, 'दिगम्मवरीय जैन गइरेक्री।' २० देखो, सत्यकेतु विद्यालहरका 'मौर्यसाम्राज्य का इतिहास। २१ देखो, विशेष विवरणके लिये 'सविप्तजैनइतिहास' भाग खंड।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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