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परिग्रह-परिमाण-बतके दासी-दास
गुलाम थे
[ लेखक-श्री पण्डित नाथूराम प्रेमी ] असारमें स्थायी कुछ नहीं । सभी कुछ सुवर्णादि । षण्ण धान्यं ब्रीद्यादि । कुप्प
"परिवर्तनशील है। हमारी सामाजिक व्य- कुप्यं वस्त्रं । भण्ड भाण्डशन्देन हिंगुमरिवस्थाओंमें मी बराबर परिवर्तन होते रहते हैं, चादिकमुच्यते । द्विपदशब्देन दासदासीयद्यपि उनका ज्ञान हमें जल्दी नहीं होता। भृत्यवर्गादि । चउप्पय गजतुरगादयः
जो लोग यह समझते हैं कि हमारी सामा. चतुष्पदाः । जाणाणि शिविकाविमानादिकं जिक व्यवस्था अनादिकालसे एक-सी चली आ यानं । सयणासणे शयनानि भासनानि च ।" रही है, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। वे जरा गह- अर्थात-खेल, वास्तु (मकान), धन (सोनाराईसे विचार करके देखें तो उन्हें मालूम हो जाय कि परिवर्तन निरन्तर ही होते रहते हैं,
चांदी), धान्य (चावल आदि), कुप्य (कपड़े), हरएक सामाजिक नियम समयकी गतिके साथ
भाण्ड (हींग मिर्चादि मसाले), द्विपद (दोपाये कुछ न कुछ बदलता ही रहता है।
दास-दासी) चतुष्पद (चौपाये हाथी, घोड़े आदि) उदाहरणके लिए इस लेखमें हम दास-प्रथा यान (पालकी विमान आदि), शयन (विछोने की चर्चा करना चाहते हैं। प्राचीनकालमें सारे और आसन ये बाह्य परिप्रह हैं। देशोंमें दास-प्रथा या गुलाम रखनेका रिवाज · लगभग यही अर्थ पण्डित भाशाधरजी था। मारतवर्षमें भी था । इस देशके अन्य और आचार्य अमितगतिने भी अपनी टीकाओं प्राचीन ग्रन्थों के समान जैन-ग्रन्थोंमें भी इसके में किया है। इन दसमेंसे हम अपने पाठकोंका अनेक प्रमाण मिलते हैं।
ध्यान द्विपद और चतुष्पद अर्थात दोपाये और जैनधर्मके अनुसार बाह्यपमिहके दस भेद हैं- चौपाये शब्दोंकी ओर खींचना चाहते हैं। ये बाहिरसंगा खेतं
दोनों परिग्रह हैं । जिस तरह सोना, चांदी, वत्थं धणधण्णकुप्यभण्डानि । दुपय-चउप्पय-जाणा
मकान, वस्त्र आदि चीन मनुष्यकी मालिकी णि वेव सयणासणे यहा १९१९ समझी जाती है, इसी तरह दोपाये और
-भगवती आराधना चौपाये जानवर भी। चौपाये तो खैर, अब भी इसपर श्रीअपराजितसूरिकी टीका देखिए- मनुष्य की जायदाद में गिने जाते हैं, परन्तु पूर्व
"बाहिरसंगा बाबपरिग्रहा: । खेतं कालमें दास-दासी भी जायदादके अन्तर्गत कर्षणाधिकरणं । वत्वं वास्तु-गृहपणं थे। पशुभोंसे उनमें यही भिन्नता थी कि उनके