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________________ अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाद, वीर-निर्वाण सं० २४६६ %3 चार पांव होते हैं और इनके दो। पांचवें परिग्रह (Slave) है। इस समयके नौकरका वो स्वतन्त्र त्याग व्रतके पालनमें जिस तरह और सब व्यक्तित्व है। वह पैसा लेकर काम करता है, चीजोंके छोड़नेकी जरूरत है उसी तरह इनकी गुलाम नहीं होता। कौटिलीय अर्थशास्त्रमें गुलाम थी। परन्तु शायद इन द्विपदोंको स्वयं छूटनेका के लिये 'दास' और नौकर के लिये 'कर्मकर' शब्दोंअधिकार नहीं था। का व्यवहार किया गया है। दास पासियोंका स्वतन्त्र व्यक्तित्व कितना था, अनगारधर्मामृत अध्याय ४ श्लोक १२१ की इसके लिए देखिए टीकामें स्वयं पं० आशाधरने दास शब्दका अर्थ सचिता .पुणगंथा किया है--"दासः क्रयक्रीतः कर्मकरः ॥ वति जीवे सयं च दुखंति । अर्थात् खरीदा हुआ काम करने वाला 1 पं० पावं च तष्णिमि राजमल्लजीने लाटीसंहिताके छठे सर्गमें परिगिलं तस्स से होई ॥१९६२ लिखा है"सचित्ता पुणगंथा वधंति जीवेगंथा परिग्रहाः दासकर्मरता दासी दासी दास गोमहिण्यादयो घ्नन्ति जीवान् ___ क्रीता वा स्वीकृता सती। . स्वयं च इखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्य तत्संख्या व्रतशुद्ध्यर्थ मानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीव कर्तव्या सानतिक्रमात् ॥१५०॥ छतासंयमनिमिर्च तस्य भवति ।" यथा दासी तथा दासः ....." -विजयोदया टीका अर्थात्,-दास-कर्म करने वाली दासियाँ अर्थात्-जो दासी-दास गाय-भैस आदि. चाहे वह ग्वरीदी हुई हों और चाहे स्वीकार की सचित्त ( सजीव ) परिग्रह हैं वे जीवोंका घात हुईं. उनकी संख्या भी व्रतकी शुद्धिके लिये बिना करते हैं और खेती आदि कामों में लगाये जाने अतिक्रमके नियत कर लेनी चाहिये । इसी तरह पर स्वयं दुखी होते है। इसका पाप इनके स्वीकार दासों की भी। करने वाले या मालिकोंको होता है। क्योंकि इससे मालूम होता है कि काम करने वाली मालिकोंके निमित्तसे ही वे जीव-वधादि करते हैं। दासियाँ खरीदी जाती थीं और उनमें से कुछ ___इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका स्वतन्त्र स्वीकार भी करली जाती थी । स्वीकृताका अर्थ व्यक्तित्व एक तरहसे था ही नहीं, अपने किये हुए शायद रखैल, होगा। 'परिग्रहीता' शब्द शायद पाप-पुण्यके मालिक भी वे स्वयं नहीं थे। अर्थात् इसीका पर्यायवाची है। इस तरहके बामपरिग्रहोंमें जो 'दास-दासी' परि- यशस्तिलक में श्रीसोमदेवसूरिने लिखा हैप्रह है उसका अर्थ जैसा कि आजकल किया वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तजने । जासा है 'नौकर नौकरानी' नहीं है, किन्तु गुलाम माता श्वसा तन्जेति मतिब्रस गृहाश्रमे ॥
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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