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वर्ष ३, किरण ८-९]
परिप्रह-परिमाण-व्रतके वासी-दास गुलाम थे
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अर्थात-पत्नी और वित्त-त्री को छोड़कर स्वामिनोऽस्यां दास्यां जातं अन्य सब स्त्रियोंको माता, पहिन और बेटी सम
समातृकमदास विद्यात् । ३२ । मना गृहस्थाश्रमका ब्रह्म या ब्रह्मचर्याणुव्रत है।
गृह्या घेत्कुटुम्मार्थचिन्तनी माता वित्तका अर्थ धन होता है, वित्त-श्री से तात्पर्य भ्राता भगिनी चास्याः दास्याः स्युः॥३३॥ धनसे खरीदी हुई दासी होना चाहिये । इसका
-धर्मस्थीय तीसरा अधिकरण । अर्थ वेश्या भी किया गया है परन्तु अब मुझे ऐसा अर्थात्-यदि मालिकसे उसकी दासीमें प्रतीत होता है कि दासी अर्थ ही अधिक उपयुक्त सन्तान उत्पन्न हो जाय तो वह सन्तान और होगा। कोशों में वार-योषित, गणिका पण्यस्त्री
उसकी माता दोनों ही दासतासे मुक्त कर दिये आदि नाम वेश्याकं मिलते हैं जिनके प्रम. जायें। यदि वह स्त्री कुटुम्बार्थचिन्तनी होनेसे की, बहुतोंकी या बाजारू औरत होता है, पर ग्रहण करली जाय, भार्या बन जाय तो उसकी धन-स्त्री या वित्त-स्त्री जैसा नाम कहीं नहीं मिला।
- माता, बहिन और भाइयोंको भी दासतासे मुक्त
कर दिया जाय। गृहस्थ अपनी पत्नी और दासीको भोगता इन सूत्रोंको रोशनीमें सोमदेवसूरिका ब्रह्माणुहुआ भी चतुर्थ अणुव्रतका पालक तभी माना जा व्रतका विधान अयुक्त नहीं मालूम होता। . सकता है, जब दासी गृहस्थकी जायदाद मानी स्मृति ग्रन्थों में दासोंका वर्णन पहुव विस्तारसे जाती हो । जो लोग इस व्रतकी उक्त व्याख्या पर किया गया है। नाक-भौंह सिकोड़ते हैं वे उस समयकी सामाजिक मनुस्मृतिमें सात प्रकारके दास बतलाये हैंव्यवस्थासे अनभिज्ञ हैं, जिसमें 'दासी' एक परि. ध्वजाहतो मुक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ । ग्रह या जायदाद थी। अवश्य ही वर्तमान दृष्टि- पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः॥ कोणसे जब कि दास-प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा है अर्थात-ध्वजाहत (संप्राममें जीता हुआ)
और दासी किसीकी जायदाद नहीं है, ब्रह्माणुव्रतम भक्त-दास ( भोजनके बदले रहने वाला, गृहज) उसका ग्रहण निन्द्य माना जाना चाहिये। (वासी-पुत्र). क्रीत (खरीदा हुमा), दत्रिम
कौटिलीय अर्थशास्त्रमें दासकल्प' नामक (दूसरे का दिया हुभा), पैत्रिक पुरखोंसे चला एक अध्याय ही है, जिससे मालूम होता है कि माया), और दण्डदास (दण्डके धनको चुकानेके दासीदास खरीदे जाते थे, गिरवी रक्खे जाते लिए जिसने दासता स्वीकारकी हो), मे सात थे और धन पाने पर मुक्त कर दिये जाते थे। प्रकार के दास हैं। दासियों पर मालिकका इतना अधिकार होता था याज्ञवल्क्यस्मृतिके टीकाकार विज्ञानेश्वर कि वह उनमें सन्तान भी. उत्पन्न कर सकता था। (१२ वीं सदी) ने पन्द्रह प्रकारके दास बतलाये और उस दशामें वे गुलामीसे छुट्टी पाजावी थीं। हैं, जिनमें अपर बतलाये हुए तो हैं ही, उनके
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