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________________ वर्ष ३, किरण] जैनियों की रष्टि में विहार बैनपंथ भी भाचार्य चाणक्यको सम्राट् बिन्दुसार श्रेणिक (बिम्बसार) और उसके पुत्र कुणिक का प्रधानमंत्री प्रकट करते हैं। बिन्दुसारके (अजातशत्रु ) के नामोंके साथ बनाई गयी है। स्वर्गस्थ होने पर ई० पूर्व २७२ में इसका पुत्र पर अशोकके २२ वें वर्षकी. 'भावरा' की प्रास्थिमें अशोक राज्यारूढ़ हुआ। कई विद्वानोंका मत है जिसमें उसके बौद्ध होनेके सष्ट प्रमाण हैं, उसकी कि सम्राट अशोस्ने अपनी प्रशस्तियोंमें जो पदवी केवल 'पियदसि' पायी जाती है, 'देवानाअहिंसा, सत्य, शील आदि गुणों पर जोर दिया पिय' नहीं। इसी बीचमें बह जैनसे बौख हुमा उससे प्रतीत होता है कि वह स्वयं जैनधर्मा- होगा । पर आजकल बहुत मत यही है कि वलम्बी रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रो० कनका अशोक बौद्ध था। (जैन इतिहासकी पूर्व पीठिका) कहना है कि 'अहिंसाके विषयमें अशोकके जो जैनियों की वंशावलियों और अन्य अन्योंमें नियम हैं वे बौद्धोंकी अपेक्षा जैनियोंके सिद्धान्तों उल्लेख है कि अशोकका पौत्र 'सम्पति' था, से अधिक मिलते हैं। जैनग्रंथों में इसके जैन होनेका उसके गरु 'सहस्ति' प्राचार्य थे और वह जैनप्रमाण भी स्पष्ट उपलब्ध है। कवि कल्हणकी धर्मका बड़ा प्रतिपालक था। उसने 'फ्यिदसि' के 'राजतरंगणी' में अशोक द्वारा काश्मीरमें जैनधर्म- नामसे बहुतसी प्रशस्तियाँ शिलाओं पर का प्रचार किये जानेका वर्णन है। यही बात अंकित करायी थी । इस कथनके आधार पर अबुलफजलको 'आइने अकबरीसे भी विदित प्रो. पिशेल और मि० मुकर्जी जैसे विद्वानोंका होती है। कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोक मत है कि जो शिलाप्रशस्तियाँ अब अशोकके पहले जैनधर्मका उपासक था, पश्चात बौद्ध नामसे प्रसिद्ध हैं, वे सम्भवतः 'सम्पति' ने होगया था। इसका एक प्रमाण यह दिया लिखवायी होंगी । पर सरविन्सेन्ट स्मिथकी जाता है कि अशोक के उन लेखोंमें जिनमें उसके राय इसके विरुद्ध है । वे उन सब लेखोंको स्पष्टतः बौद्ध होनेके कोई संकेत नहीं पाये जाते अशोकके ही प्रमाणित करते हैं। अशोकके बल्कि जैन सिद्धान्तोंके ही भावोंका आधिक्य है, समयमें सम्प्रति युवराज था और उसीने अपने राजाका उपनाम 'देवानापिय पियदसी' पाया जाता अधिकारसे अशोकको राजकोषमें से बौद्धहै। देवानां पिय' विशेषतः जैनप्रन्थोंमें ही राजा- संघको दान देनेका विरोध कर दिया था। की पदवी पायी जाती है। श्वेताम्बरी 'उवाई' सम्राट कुनालके शासनमें भी शासन-सूत्र उसी (औपपातिक ) सूत्रप्रन्थोंमें यह पदवी जैन राजा के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुल१७ देखो, 'राजाविलकथे' (कन्नड़) १८ देखो, 'य: शान्तजिनो राजा प्रयन्तो जिनशासनम्। से प्रन्थोंमें सम्प्रतिको ही अशोकका उत्तरा. शुष्कलेऽत्र वितस्ताको तस्तार स्तूपमंडले ॥०१ धिकारी लिख दिया है । जैन-साहित्यमें सम्पति१९ देखो, 'मली कंथ भाफ अशोक', थामख-कृत। का वही स्थान है जो बौख-साहित्यमें अशोक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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