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वीर-शासन दिवस और हमारा उत्तरदायित्व
कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ]
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विद्यमान हैं बल्कि देशके बड़े बड़े नेताओं-लालालाजपतराय सरीखे राजनीतिज्ञों और कई इति हासिशोंके मनमें भी बैठी हुई पाई गयी हैं । कई रियासतों में जैनियोंके विमान निकालने पर लोग नग्न मूर्तियों पर ऐतराज करते हैं और इतना जोर बाँधते हैं कि दंगातक करने लगते हैं-कोलारम, कुडची, महगांव, बयाना आदि पचासों स्थानों पर धर्मपालनमें बाधाएँ पड़ीं। यह सब उस जमाने में हो रहा है जब कि धर्मपालन में राज्योंकी तरफ़से पूर्ण स्वतंत्रताकी आम घोषणा है। पता है इन सब अन्यायों के मूल कारण कौन है ? हम भगवान् महावीर की नालायक सन्तान ।
हम गाली देते हैं उन हिन्दुओं को जो हमपर अपनी अज्ञानता के कारण धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक हमले करते हैं, हम गाली देते हैं उन्हें जो हमारी उच्चताका मजाक उड़ाते हैं, हम बुरा कहते हैं उन्हें जो हमारे अलग राजनैतिक हक़ों को देने से इनकार करते हैं; इसी तरह कलियुगको भी गाली देकर हम अपनी कायरताका प्रमाण देते हैं। आखिर इस श्रात्मवचनासे लाभ क्या ? हम देखते हैं आये दिन हम अपनी एक नहीं अनेक होनेवाली घरू और बाहरी आपत्तियों के लिये ते रहते हैं, लेकिन हम उसके कारण कलापको देखते हुए भी उसके वास्तविक कारण तक नहीं पहुँच पाये हैं। सच पूछिये तो हमें दूसरों का ऐबजोई करना जितना आसान रहा है, अपनी अदूरदर्शिता पूर्ण कृतियों और उनके नतीजोंपर नजर पहुँचाना उतनी ही टेढ़ी खीर रहा है ।
आज भी हम धर्मके नामपर लाखों रुपया मन्दिर बनाने, रथ चलाने, सोना और रंग कराने,
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संगमरमर के फर्श और टाइल्स जड़बानेमें खर्च करनेसे नहीं रुकते । परन्तु हम देव-शास्त्र गुरुका एक ही दर्जा मानते हुए भी शास्त्रोंके पुनरुद्धारार्थ विद्वानोंकी कोई भी समिति कायम नहीं कर पाये । हमारी पाठशालाएँ और विद्यालय अपने अपने ढर्रे पर चल रहे हैं. वे प्राय: अध्यापकों की पुश्तैनी जायदाद बनादिये गये हैं; ऊँचे विद्यार्थी कितने हैं, स्त्रर्च कितना है, इसका कोई ठीक ठिकाना नहीं; समाजका पैसा कितनी बेदर्दीसे धर्मके नामपर प्रचारक रखकर फेंका जाता है, उसका भी कोई ठिकाना नहीं; माणिकचन्द्र परीक्षालय, महासभा परीक्षालय, परिषदपरीक्षालय, मालवा परीक्षालय सबके छकड़े दौड़ लगा रहे हैं, और अब तो विद्यार्थियों से फीस भी लेने लगे । गरज यह कि, अव्यवस्थाका खासा माम्राज्य कायम है, धर्मके नामपर चाहे जैसी अवांछित पुस्तकोंका प्रचार है । जहाँ ज्ञान प्रसारके क्षेत्र में जैन समाजमें यह अंधेरे हो वहां जैनेतर समाजमें धर्मप्रचारकी बात दिमारामें आना ही मुश्किल है। यूनिवर्सिटियों, कालेजों और हाईस्कूलों तथा सार्वजनिक लाइब्रेरियोंमें तो हमारी पुस्तकोंका प्रायः पता भी नहीं मिलता- हमारे सार्वजनिक क्षेत्र हमारे प्रभावसे शून्य रहते हैं । ऐसी हालत है हमारी, जिसे आँख खोलकर देखते हुए भी हम देख नहीं रहे हैं। भला सोचो तो, इसमें किसका क्रसूर हैं। जो आँख देखने के लिये हो उससे हम विवेक पूर्वक देखें नहीं और आपत्ति होनेपर रोवें तो हमें उस शायरके शब्दों में यही कहना पड़ेगा कि
" रोना हमारी चश्मका दस्तूर होगया । दी थी खुदाने आँख सो नासूर होगया ॥