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________________ १८८ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाय सं०२४१६ उदय जिस प्रकारसे प्रत्यक्ष ज्ञाता हष्टा मर्वज्ञने उक्त प्रकारके व्यवहारोंमे तो मान प्रकट है कि कहा हो वह सब गाथासे प्रकट नहीं होता। इस उनमें नीच और उच्च दोनों ही प्रकारके आचरणलक्षणके मुताबिक गोत्रकर्मका उदय माष्यों ही वाले जीव होते हैं, फिर जैन-पिद्धान्तियोंने देवमें मिलेगा और अन्य गतियोंके जीवोंके आठ गतिमें नीचगोत्रका उदय क्यों नहीं कहा ? पाठक कर्मों की जगह मात ही का उदय मानना पड़ेगा। विचारें। __ जैन सिद्धान्तियोंमें गत्र और गोत्र कर्मकं २-इसमें कुछ विशेष कहनेकी ज़रूरत नहीं विषयोंमें जो प्रचलिन मत है वह मनप्यों ही के कि अमुर, राक्षम. भून, पिशाचादि देवोंके आचव्यवहारों तथा कल्पनाओंसे बना है । इसके रण महान घृणित और नीच माने गये हैं और वे विशेष प्रमाणमें निम्न लिग्विन ऊहापोह की बातें वैमानिक देवोंकी समानता नहीं कर मकने । यदि पाठकोंके स्वयं विचारार्थ उपस्थित करते हैं- गोत्रके उच्चत्व नीचत्वमें जीवका आचरण मूल का १-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और रण है तो वैमानिकोंकी अपेक्षा व्यन्तरादिका गोत्र वैमानिक, इम प्रकारमं देवोंके चार निकाय जैन- अवश्य नीच होना चाहिये । देवमात्रको उच्चगोत्री धर्ममें कहे हैं । इन चारों प्रकारकं देवोंमें इन्द्र कहना जैनमिद्धान्तियोंके लक्षणमे विरुद्ध पड़ता है। सामानिक, वायविंश, पारिपद,आत्मरक्ष, लोकपाल ३–पशुओं में सिंह, गज, जम्बुक, भेड़. कुक्कर अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक, आदिक आचरणों में प्रत्यक्ष भेद है। वीरता, माहम ऐसे दश भेद होते हैं। इनमेंमें जो देव घोड़ा, आदि गुणोंमे मिहको मनुष्योंने आदर्श माना है । रथ, हाथी, गंधर्व और नर्तकीक रूपोंको धारण किमी दूमरेकी मारी हुई शिकार और उच्छिष्टको करते हैं वे अनीक हैं जो हाथी, घोड़ा बाहन सिंह कभी नहीं खाता और न अपने वारमे पीछे बनकर इन्द्रकी सेवा करते हैं वे आभियोग्य कह रहे हुए पशु पर दुबारा आक्रमण करता है । जैनालाते हैं; और जो इन्द्रादिक देवोंके मन्मानादिक चार्योन १०० इन्द्र की संख्यामें सिंहको इन्द्र कहा अनधिकारी, इन्द्रपुरीसं बाहर रहने वाले तथा है, यथाअन्यदेवोंसे दूर खड़े रहनेवाले (जैम अस्पृश्यशद्र) "भवणालय चालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा । हैं वे किल्विषक देव हैं। यहाँ अपने आप यह कप्पामर चउबीसा चन्दो सूरो णरो तिरमो।" प्रश्न होता है कि किल्लिपक जातिके देवोंको अन्य इसका क्या कारण है कि आचरणों में भेद होते प्रकारकं देव अपनी अपेक्षा नीच समझते हैं कि. हुए भी तिर्यश्चमात्रको समानरूपसे नीचगोत्री कहा नहीं ? यदि नीच नहीं समझते तो किल्विषिकोंको गया है ? अमरावतीसे बाहर दूर क्यों रहना पड़ता है और ४-नारकियोंमें ऐसे जीव भी होते हैं जिनके वे अस्पृश्य क्यों हैं ? एवं अनीक तथा आभियोग्यक तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है। क्या वे जीव पाचरण शेष सात प्रकारके देवों कीदृष्टि में उच्च हैं भी अन्य नारकियोंकी तरह नीचाचरणी ही होते वा नीच ? देवोंके दश प्रकारके भेद और उनकं ? सर्व नारका जीवोंका समान नीचाचरणी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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