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________________ वर्ष ३, नि: शानायकी एक प्राचीन प्रति भों नमः सिद्धेभ्यः। महं श्री शुभचन्द्राचार्यः जयचन्द्रजीने ही योगयाख परसे. उक्तं च रूपमें उठा परमात्मानमव्ययं नौमि नमामि कि भूतं परमा- लिया होगा या फिर उनके पास जो मूल प्रति ही त्मानं मज जन्मरहिवं पुन: कि भूतं परमात्मानं होगी उसमें ही किसीने उद्धृत कर लिया होगा । परन्तु भव्ययं विनाशरहितं । पुनः किं भूतं परमात्मानं मूलकी सभी प्रतियोंमें ये श्लोक न होंगे। निदान दो सौ निष्टितार्थ निष्पन्नाथ पुनः किं भूतं परमात्मानौं वर्षसे पुरानी प्रतियोंमें तो नहीं ही होंगे । पाठकोंको मानलक्ष्मीषनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितं । शानमेव चाहिए कि वे प्राचीन प्रतियोंको इसके लिए देखें। लक्ष्मीस्तस्या योऽसौ धनाश्लेषं निविड़ाश्लेषस्तम्मात् लिपिकर्ताओंकी कृपासे 'उक्तंच' पयोंके विषयमें प्रभवः उत्पनो योऽसौ भानन्दस्तेन नन्दितम्।" इस तरहको गड़बड़ अक्सर हुमा करती है और यह इस प्रतिके शुरूके पत्रोंके ऊपरका हिस्सा कुछ गड़बड़ समय-निर्णय करते समय बड़ी झमटें खड़ी कर जल-सा गया है और कहीं कहींके कुछ अंश झड़ गये दिया करती है। है। प्रारंभके पत्रकी पीठपर कागज चिपकाकर बड़ी ज्ञानार्णवकी छपी हुई प्रतिको ही देखिए । इसके सावधानीसे मरम्मत की गई है। पूरी प्रति एक ही लेख- पृष्ठ ४३१ (प्रकरण ४२) के 'शुचिगुरुयोगाई' आदि ककी लिखी हुई मालूम होती है । अन्तमें लिपिकर्ताका पद्यको 'उक्तं च' नहीं लिखा है परन्तु तेरहपन्थी मंदिर नाम तिथि-संवत् प्रादि कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे की उक्त संस्कृत टीका वाली प्रतिमें यह 'उक्तं च है। अनुमानसे वह डेढ़-दो सौ वर्षसे इधरकी लिखी हुई पं० जयचद्र जीकी नचनिकामें भी इसे 'उक्तं च श्रायो' नहीं होगी। करके लिखा है, परन्तु छपाने वालोंने 'उक्तं च' छोड़ इस प्रतिमें हमने देखा कि प्राणायाम-मम्बन्धी वे दिया है! इसी तरह अड़तीसवें प्रकरणमें संस्कृत टीका दो 'उक्तंच' पद्य है ही नहीं जो छपी हुई प्रतिमें दिये हैं वाली प्रतिमें और वचनिकामें भी 'शंखेन्युमन्दधवला और जो प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्रके हैं। तब ये ध्यानारेबासपो विधानेन श्रादि पद्य 'उक्तं च करके छपी प्रतिमें कहाँसे आये। __ दिया है परन्तु छपी हुई प्रतिमें यह मूल में ही शामिल ___ स्व. पं. पन्नालालजी वाकलीवालने पं0 जयचन्द्र कर लिया गया है। जीकी भाषा वचनिकाको ही खड़ी बोलीमें परिवर्तित ध्येयं स्याहीतरागस्य' आदि पद्य छपी प्रतिके करके ज्ञानार्णव छपाया था। हमने प० जयचन्द्र जीकी ४०७ पृष्ठमें 'उक्तं च' है परन्तु पूर्वोक्त सटीक प्रतिमें वचनिका वाली प्रति तेरहपन्थी मन्दिरके भंडारसे निक- इसे 'उक्तं च न लिखकर इसके प्रागेके 'वीतरागो लवाकर देखी तो मालूम हुआ कि उन्होंने इन श्लोकोंको भवेयोगी' पाको 'उक्त च' लिखा है । और छपीमें उद्धत करते हुए लिखा है कि-"इहाँ उक्तं च दोय तथा वचनिकामें भी, दोनों ही 'उक्त च' हैं। श्लोक -" 'उक्तं च' पद्योंके सम्बन्धमें अपी और सटीक तथा पं. जयचन्द्र जीने अपनी उक्त वचनिका माष सुदी वचनिकावाली प्रतियोमें इमी तरह और भी कई जगह पंचमी भगुवार सवत् १८०८ को समाप्त की थी । या फर्क है, जो स्थानाभावसे नहीं बनलाया जा सका। तो इन श्लोकोंको प्रकरणोपयोगी समझ कर स्वयं ५० अभिप्राय यह है कि शानार्णवकी छपी प्रतिमं हेमचन्द्र
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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