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________________ [माष, वीरनिर्वाण सं०२५ के योगशास्त्रके उक्त से पद्योंके रहने से यह सिद्ध नहीं श्रीशुभचन्द्राचार्यका मक समय निसय करनेका प्रयत्न होगा कि शुभचन्द्राचार्वने स्वयं ही उने उद्धृत किया है करें । और इस कारण वे हेमचन्द्र के पीछेके हैं। इसके लिए बम्बई ता० १४-१-१६४० कुछ और पुट प्रमाण चाहिए। सम्पादकीय नोटपाटणके भारकी उक्त प्राचीन प्रति तो बहुत कमदोरके शक बोट परखे मुके राबत. कुछ इसी ओर संकेत करती है कि शामार्णव योग- शाखमाताके संचालकोंकी इस मनोवृत्तिको मात शास्त्रसे पीछेका नहीं है। करके या खेद हुषा कि महोंने भूमिका-पोसाको नोट--अबसे कोई बत्तीस वर्ष पहले (जुलाई स्वयं अपनी पूर्वलिखित भूमिका को सदोष तथा बुद्धिसन् १९०७) मैंने शानावकी भूमिकामें 'शुभचन्द्रा- पूर्ण बतलाने और उसे निकाल देने अथवा संशोधित चार्यका समयनिर्णय लिखा था और उस समयकी कर देनेकी प्रेषया करने पर भी वह भक्तक निकाली या पदाके अनुसार विश्वभूषण भट्टारकके 'भक्तामरचरित' संशोधित नहींकी गई है ! यह बड़े ही विचित्र प्रकारका को प्रमाणभूत मानकर भाराधीशभोज, कालीदास, वर- मोह तथा सत्यके सामने पाँखें बन्द करने जैसा प्रयत है! सचि, धनंजय, मानतुंग,भर्तृहरि श्रादि भिन्न भिन्न समय- और कदापि प्रशासनीय नहीं कहा जा सकता । माशा है वती विद्वानोको समकालीन बतलाया था । परन्तु समय कि ग्रंथमालाके संचालकनी भविष्य में ऐसी बातोंकी बीतने पर वह श्रद्धा नहीं रही और पिछले भट्टारकों द्वारा भोर पूरा ध्यान रखेंगे और अंधके चतुर्थ संस्करणमें निर्मित अधिकांश कथासाहित्यकी ऐतिहामिकता पर लेखक महोदयकी इच्छानुसार उक्त भूमिकाको निकाला सन्देह होने लगा। तब उक्त भूमिका लिखने के कोई देने पववा संशोधित कर देनेका ८ संकल्प करेंगे। पाठ नौ वर्ष बाद दिगम्बरजैनके विशेषाङ्कमें (श्रावण साथ ही,तीसरे संस्करणकी जो प्रतियाँ भवशिष्ट हैं उनमें संवत् १९७३) 'शुभचन्द्राचार्य' शीर्षक लेख लिखकर लेखकजीके परामशानुसार संशोधनकी कोई सूचना मैंने पूर्वोक्त बातोंका प्रतिवाद कर दिया, परन्तु शाना• जरूर लगा देंगे। वकी उक्त भूमिका अब भी ज्योंकी त्यों पाठकोंके ज्ञानार्थव ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोंके खोजनेकी बढ़ी हाथोंमें जाती है। मुझे दुःख है कि प्रकाशकोंसे निवे- जमत है । जहाँ जहाँ भबडारोंमें ऐसी प्राचीन दन कर देने पर भी वह निकाली नहीं गई और इस प्रतियां मौजूद हों, विद्वानोंको चाहिये कि वे उन्हें तीसरी आवृत्ति में भी बदस्तूर कायम है। इतिहासशोंके मालूम करके उसके विषयकी शीत्र सूचना देनेकी कृपा भागे मुझे लज्जित होना पडता है, इसका उन्हें खयाल में, जिससे उन परसे बाँचका समुचित कार्य किया नहीं । बंगला मासिक पत्रके एक लेखक श्रीहरिहर जा सके। सूचनाके साथमें, ग्रंथप्रतिके खनका समय भट्टाचार्यने तो शनार्णवकी उक्त मूमिकाको 'उन्मत्त- पदि कुछ दिया हुआ हो तो वह भी लिखना चाहिये प्रलाप' मतलाया था। विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि और ग्रंथकी स्थितिको भी प्रकार करना चाहिये कि यह 'भकामरचरित' की कथाका खयाल न करके ही वे किस हालत है।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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