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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज भेट न किये होंगे। सग्रन्थावस्थामें तथा परशासनसे भी मुक्त होना सम्भव ___ यापनीय संघके साहित्यकी एक बड़ी भारी उप- है। इसके सिवाय शाकटायनकी अमोघवृत्तिके कुछ योगिता यह है कि जैनधर्मका तुलनात्मक अध्ययन उदाहरणोंसे मालम होता है कि यापनीय संघमें श्रावकरनेवालोंको उससे बड़ी सहायता मिलेगी । दिगम्बर- श्यक, छेद-सत्र, नियुक्ति और दशवैकालिक आदि श्वेताम्बर मत भेदों के मूलका पता लगाने के लिए यह अन्योंका पठन-पाठन भी होता था अर्थात् इन बातों में दोनोंके बोचका और दोनोंको परस्पर जोड़नेवाला वे श्वेताम्बरियोंके समान थे । साहित्य है और इसके प्रकाशमें आये बिना जैनधर्मका अपराजितसरि यापनीय थे प्रारम्भिक इतिहास एक तरहसे अपूर्ण ही रहेगा। यापनीय संघकी मानताअोंका थोड़ा-सा परिचय यापनीय सम्पदायका स्वरूप देकर अब हम यह बतलाना चाहते हैं कि क्या सचमुच ही मैंने अपने 'दर्शनसार-विवेचना और उसके परि- कुछ यापनीय साहित्य ऐसा है जिसे इस समय दिगम्बर शिष्ट मं यापनीयोंका विस्तृत परिचय दिया है और सम्प्रदाय अपना मान रहा है, जिस तरह कि कुछ मप्रमाण दिया है । यहाँ मैं उसकी पुनरावत्ति न करके स्थानों में उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाश्रोको ? इसके मार मात्र लिख देता हूँ, जिससे इस लेखका अग्रिम — प्रमाण में हम मबसे पहिले मलाराधनाकी टीका श्रीभाग ममझने में कोई असुविधा न हो। विजयोदयाको उपस्थित करते हैं, जो अपराजितरि या ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्रसूरि, पटदर्शनसमुच्चय- श्रीविजयाचार्यकी बनाई हुई है। के टीकाकार गुणरत्नसूरि और पटप्राभूत के व्याख्याता यह टीका भगवती अाराधनाके वनिकाकार श्रुतमागरमूरि के अनुसार यापनीय संबके मुनि नग्न रहते पं. मदासुग्वनीके सम्मुग्य थी। मबसे पहले उन्होंने थ, मोरकी पिच्छि रखते थे, पाणितल भीनी थे, नग्न ही इम पर सन्देह किया था और लिखा था कि हम मूर्तियाँ पजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकों को ग्रन्थको टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है। वस्त्र,पात्र, धर्मलाभ देते थे । ये सब बातें तो दिसम्बगियों जैमी कम्बलादिका पोपण करता है, इसलिए अप्रमाण है । थीं, परन्तु साथ ही वे मानते थे कि स्त्रियोंको उनी मदामुग्वनी चंकि यापनीय संघस परिचित नहीं थे, भवमें मोक्ष हो सकता है, केवली भीनन करत है और इमलिए व अपराजितसरिको श्वेताम्बरके सिवाय और १-२ देखो जैनहितैषी भाग १३ अंक कुछ लिख भी नहीं सकते थे । इसी तरह स्व. डाक्टर के. बी. पाटकको भी अमोघवृत्ति में श्रावश्यक छेद३ “या पंचजैनाभासैरंचलिकारहिनापि नग्नमूर्तिरपि एनकमावश्यकमध्यापय। इयमावश्यकमध्यापय । प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च ।" अमोघवृत्ति-२-२०३-४ षट्प्रामृनटीका पृष्ठ ७६ । श्रुतसागरके इस वचनसे भवता खनु छेदसूत्रं वोडन्यं । नियुक्तिरधीरव । मालूम होता है कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें नियुक्ति धीते । ५-४-१३-४० नग्न होती थी क्योंकि यापनीय उनके पाँच जैनाभामोंके कानिकसूत्रस्यानभ्यायवेशकाखाः पठिताः । ३-२-४७ मतगत है। भयो चमाश्रमणैस्ते ज्ञानं दीयते १-२-२०, और १-१०
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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