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अनेकान्त
[वर्ष ३, किरण १
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के भौहिरेमें है, यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नाग- और अन्य प्रकाशमें आया है जिसका नाम 'स्त्रो-मुक्तिचन्द्रके समाधि-लेखोंका उल्लेख है । इनके गुरु नेमिः केवलि-भक्ति प्रकरण" है । इस ग्रंथमें इसके नामके चन्द्रको तुलुवराज्यस्थापनाचार्यकी उपाधि दी हुई है अनुसार स्त्रीको उसी भवमें मोक्ष होसकता है और केवली जो इस बातकी द्योतक है कि वे एक बड़े राज्यमान्य भोजन करते हैं, इन दो बातों को सिद्ध किया गया व्यक्ति थे और इसलिए संभव है कि आगे भी सौ है। चंकि ये दोनों सिद्धांत दिगम्बर संप्रदायसे विरुद्ध पचास वर्ष तक इस सम्प्रदायका अस्तित्व रहा हो। है, इसलिए इसका संग्रह दिगम्बर भण्डारों मेंनहीं किया
यापनीय साहित्यका क्या हुआ ? गया परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय इन बातोंको मानता है
बेलगावके दोहुवस्ति' नामक जैनमन्दिरकी इसलिए उसके भण्डारोंमें यह संग्रहीत रहा। भीनेमिनाथकी मूर्ति के नीचे एक खंडित लेख' है, जैसा कि पाठकोंको आगे चलकर मालम होगा जिससे मालूम होता है कि उक्त मन्दिर यापनीय संघके यापनीय संघ सूत्र या आगम ग्रन्थोंको भी मानता किसी पारिसय्या नामक व्यक्तिने शक ६३५ ( वि० था और उनके आगमोंकी वाचना उपलब्ध वल्लभी सं० १०७० ) में बनवाया था और आजकल उक्त वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है, मन्दिरकी यापनीयप्रतिष्ठितप्रतिमा दिगम्बरियोदारा पनी शायद कुछ भिन्न थी। उसपर उनकी स्वतंत्र टीकायें भी जाती है।
होंगी जैसी कि अपराजित सूरिकी दशवैकालिक सूत्रपर जिस तरह यापनीय संघको उक्त प्रतिमा इस समय टीका थी। इस सब साहित्य मेंसे कुछ न कुछ साहित्य दिगम्बर संप्रदायद्वारा मानी-पूजी जाती है, क्या ज़रूर मिलना चाहिए ।
आश्चर्य है जो उनके साहित्यका भी समावेश उसके जिस सम्प्रदायके अस्तित्वका पन्द्रहवीं शताब्दि साहित्य में हो गया हो ! यापनीय संघकी प्रतिमायें तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन, रविकीर्ति निर्वस्त्र होती है, इसलिए सरसरी तौरसे नहीं पहिचानी जैसे प्रतिभाशाली विद्वान हुए हैं, उसका साहित्य सर्वथा जा सकतीं कि वे दिगम्बर संप्रदायकी हैं या यापनीयकी। ही नष्ट हो गया होगा, इम बातपर सहसा विश्वाम इसी तरह यापनीय संघका बहुत-सा साहित्य भी नहीं किया जा सकता । वह अवश्य होगा और दिगम्बरतो ऐसा हो सकता है जो स्थल दृष्टिसे दिगम्बर श्वेताम्बर भंडारोंमें ज्ञात-अज्ञात रूपमें पड़ा होगा। सम्प्रदाय जैसा ही मालूम हो । उदाहरण के लिए विक्रमकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दि तक कनड़ी हमारे सामने शाकटायन व्याकरण है ही। वह दिगम्बर साहित्यमें जैन विद्वानोंने सैकड़ो एकसे एक बढ़कर संप्रदायमें सैकड़ों वर्षोंसे केवल मान्य ही नहीं है उस ग्रन्थ लिखे हैं। कोई कारण नहीं है कि जब उस समय पर बहुत-से दिगम्बर विद्वानोंने टीकायें तक लिखी तक यापनीय संघके विद्वानोंकी परम्परा चली श्रा
रही थी तब उन्होंने भी कनही माहित्यको दस-बीम ग्रन्थ शाकटायनाचार्यका व्याकरणके अतिरिक्त एक बैन साहित्य संशोधक भाग २ अंक ३, ४ में यह देखो जैनदर्शन बर: अंक. प्रकरण प्रकाशित हो चुका है।