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________________ बीका जीवन-मार्ग .. ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये अनेक योगिक कर्म सहयोग सहमन्त्रणाको धर्म बनाया । संयम सहिष्णुता, मालूम किये । परन्तु मूल प्रश्नका हल न हुआ। दान-सेवा, प्रेम-वात्सल्यका पाठ पढ़ा, परन्तु सुख शांति इन्हें विफल जान विज्ञान मार्गको अपनाया, अनेक का राज्य स्थापित न हुआ, पाप अत्याचारका अन्तन विद्याओं और आविष्कारोंको उत्थान मिला । प्रकृतिकी हुश्रा, मारपीट, लूट खसोट, दलन मलनका प्रभाष न शक्तियोंको निर्यातक बनाने और काममें लाने के लिये हुआ। दीन-हीन, दुःखी-दरिद्री, दलित-पतित बने ही अनेक दंग मालूम किये। नगर और ग्राम बसाये, रहे । ऊँच नीच, छोटे बड़ेके भाव जमे ही रहे। दुर्ग और प्रासाद खड़े किये, खाई और परकोट रचे, तब विचार उत्पन्न हुआ कि यह नीतिका मार्ग अनेक औषधि, रसायन और उपचार प्रयोगमें लाये नहीं, यह नीतिका अभाव है। इसमें सत्याग्रह, साम्यता परन्तु रोग-शोक, जन्म-मरणका बहिष्कार न हुआ, और अहिंसाका अभाव है। इसका उद्देश परमार्यअानन्दका लाभ न हुआ, सुन्दरताका श्रालोक न सिद्धि नहीं, स्वार्थ सिद्धि है। इसका रचयिता सद्शान हुआ। नहीं, बुद्धि चातुर्य है। इसका आधार अन्तः उद्धार इस कमीको पूरा करने के लिये शिल्पकलाकी ओर नहीं, बाझ उपयोगिता है (Utahtarianism) ध्यान दिया, बस्तियोंको उद्यान-बाटिका, ताल-बावड़ी की उत्पत्ति पूर्णतामें से नहीं हुई, यह वांछाकी सृष्टि है। चौक-राजपथसे सजाया, भवनोंको खम्भ, तोरण, शिखर, इसलिये यह अपने ही संघ, जाति, सम्प्रदाय और देश उत्तालिकाओंसे ऊँचा किया । इन्हें फल फुलवाड़ी, मूर्ति में सीमित होकर रह जाती है । इससे बाहिर समस्त लोक चित्रकारीसे सुशोभित किया । शरीरको वस्त्राभूषण, तेल अनीतिका क्षेत्र है । यह नीति मानव-गौरवको वस्तु नहीं, फुलेल, रूपगारसे अलंकृत किया । इस मार मार, यह तो चोर डाकुत्रों के संघमें मी मौजूद है, कर पशु घसाघसीमें नृत्य संगीत, नाटक-वादित्र भरकर जीवनको पक्षियों के समूहमें भी मिलती है। सरस बनाया, परन्तु जीवनकी कुरूपता, भयानकता, इस प्रकार जीवने बुद्धि-द्वारा जीवन-तथ्यको समजड़ताका अन्त न हुआ । भनेकी अनेक विध कोशिश की; इसके साधनोंको अनेक तब मनुष्यने व्यक्तिगत परिश्रमको निर्बल जान, विध प्रयोगमें लाया, इसके बतलाये हुये तथ्योंको अनेक पुरुषार्थको संगठित करनेका विचार किया, अनेक विध स्वीकार किया, इसके बताये हुये जगको अनेक संस्थायें व्यवस्थायें स्थापित हुई,अनेक संघ और समाज विध टटोला, इसके सुझाये हुये मार्गोको अनेक विष बने, अनेक सभ्यता और साम्राज्य उदयमें आये । कभी ग्रहण किया; परन्तु वाँछाकी तृप्ति न हुई । वेदना बनी जाति को, कभी संस्कृतिको, कभी देशको इनका आधार ही रही, पुकारती ही रही। बनाया । परन्तु यह संगठित शक्ति भी प्रकृतिके अनिवार्य तब कहीं निश्चित हुश्रा कि बुद्धि निरर्थक है। उत्पातोंका, शरीरके स्वाभाविक रोगोंका, मनकी व्यथा इसकी धारणा मिथ्या है। इसका मार्ग निष्फल है। व्याधियोंका जन्म-मरण रूप संसारका अन्त न कर इसका जग वांच्छित जग नहीं। यह और है और वह सकी। कोई और है। इसजगकी सिद्धिमें सुख नहीं, इसकी आखिर मनुष्यकी दृष्टि नीति मार्गकी ओर गई। असिद्धिमें दुःख नहीं, सुख और दुःख इस जगसे निपेंच
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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