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________________ .10 [भारिखन, वीर निर्णय जिनमेंसे एक तो मुख्यतया नाम लेकर उल्लेखित लिए इस प्रकारके कथनमें कोई सार नहीं कि 'अई. 'प्रवचनादय' का और दूसरा 'आदि' शब्दके द्वारा प्रवचनहृदय नामका कोई अन्य अब तक कहीं सुनने उल्लेखित किसी अन्य ग्रन्थका होना चाहिये । साथ ही में नहीं पाया अथवा उसका कहीं पर उल्लेख नहीं ये दोनों ग्रंथ उमास्वातिसे पूर्ववर्ती होने चाहिये; तभी मिलता ।' राजवातिकमें उसका स्पष्ट उल्लेख है इनके द्वारा उक्त आपत्तिका परिहार हो सकता है। और वह कुछ कम महत्वका नहीं है। इससे पहले यदि पहले वाक्य के साथ प्रमाणग्रंथकी सूचनाके रूपमें 'अहं. अर्हत्प्रवचनहृदयका नाम नहीं सुना गया तो वह अब तप्रवचने' पद लगा हुआ है, जिसका मूलरूप या तो सुना जाना चाहिये । सैकड़ों महत्वके ग्रंथ रचे गये हैं, उसके पूर्ववर्ती भाष्य और वार्तिक के अनुसार 'अहत्प्रव- जिनके आज हम नाम तक भी नहीं जानते और जो चनहृदये' है और या वह उसके लिये प्रयुक्त हुश्रा उम- नष्ट हो चुके अथवा लुप्तप्राय हो रहे हैं, उनमेसे कोई का संक्षिप्त रूप है । इस ग्रंथका जो वाक्य उधत किया ग्रंथ यदि कहीं उल्लेखित मिल जाय या उपलब्ध हो है वह "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" है । यह वाक्य जाय तो क्या उसके अस्तिस्वसे महज इसलिये इनकार यद्यपि उमास्वातिके तत्वार्थसत्रमें पाया जाता है। परन्तु किया जासकता है कि उसका नाम पहलेसे सुनने में वह मूलतः उमास्वातिके तस्वार्थसत्रका नहीं हो सकता; नहीं आया था ? यदि नहीं तो फिर उक्त प्रकारके क्योंकि उमास्वातिकी सत्ररचना पर उठाई गई उक्त कथनका क्या नतीजा, जो प्रो० साहयकी समीक्षामें अापत्तिका परिहार उन्हीं के शास्त्रवाक्यसे नहीं किया अभ्यत्र (लेखके शुरूमें) प्रकीर्णक रूपसे पाया जाता जा सकता-वह असंगत जान पड़ता है। ऐमी हालत है ? ऐसे ग्रंथोंका तो कुछ भी अनुसन्धान मिलने परमें यह मानना होगा कि उमास्वातिने अपने ग्रन्थमें सुराग़ चलने पर-उनकी खोजका पूरा प्रयत्न होना उक्त वाक्यका संग्रह 'अहत्प्रवचनहृदय' ग्रन्थ परसे चाहिये। किया है। उनका तत्वार्थसूत्र अर्हत्प्रवचनका एक- समीचा-"श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्रागमोंको निथदेशसंग्रह होनेसे, इसमें आपत्तिकी कोई बात भी नहीं प्रवचन अथवा अर्हत्प्रवचन के नाससं कहा गया है । है । और इसलिये 'भहस्प्रवचने' पदको महस्प्रवचन- स्वयं उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको 'पहहृदये' पदका अशुद्धरूप अथवा सक्षिप्तरूप कल्पना वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है । बहकरने पर जो अर्थ निकलता है उसे निकलने दीजिये, प्रवचनहदय अर्थात् महत्मवचनका हृदय, एक देश इसमें भयकी कोई बात नहीं है; क्योंकि उक्त कल्पना अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य निरर्थक नहीं है । अकलंकदेवने बहुत स्पष्ट शब्दोंमें भाष्य हो सकता है । अथवा अहमवचन और अहस्प'बहत्प्रवचनहृदय' प्रथके अस्तित्वकी सूचना की है। वचनहृदय दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं। हमारी उनके 'महत्वाचनहरयादिषु पदमें प्रयुक्त हुए 'पादि' समझमे भाष्य, वृत्ति, अईत्यवचन और अहत्यवचनहृदय शब्दसे और दो शास्त्रोंके वाक्योंको प्रमाणमें उद्धृत इन सबका लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है । जब करनेसे उसकी स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है, और तक अर्हत्प्रवचनहृदय श्रादि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं वह अति प्राचीन सूत्रग्रंथ जान पड़ता है । और इस- उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजीकी
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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