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ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
पूर्णरूप वाले धर्माचरण व उनके अनुरूपधारी सदाचरण शब्द क्या उसकी सदोषताको दूर नहीं कर सकेगा। व सद्व्यवहार । अहिंसा सत्य-शील संथमादि सद्व्यवहारों यदि उसमें सदोषता है तो 'उच्च र्गोत्रोदयादेरार्याः' के बिना भार्य मनुष्यके उपगोत्रका उदय नहीं है बल्कि इसका अर्थ, उच्च गोत्रोदयको भादि देकर अहिंसा नीचगोत्रका उदय है। इसी तरहसे म्लेच्छ मनुष्य होनेके सत्य शील संयमादि माचरणवाले मार्य है ऐसा करने लिये नीचगोत्रके उदयके साथ 'आदि' शब्दसे दूसरे पर तथा "नीचैर्गोत्रोदयादेश्च म्लेच्छाः ", इसका कारण भी प्रावश्यक बतलाये हैं और वे दूसरे कारण अर्थ नीचगोत्रोदयको श्रादि लेकर हिंमा झूठ चोरीहैं, हिमा-चोरी झूठ व्यभिचार प्रादि पापाचरण । हिंसा कुशीलादि पाचरणधारी ग्लेच्छ हैं ऐसा करने पर क्या झूठ चोरी कुशील आदि पापाचरणोंके बिना म्लेच्छ फिर भी उक्त स्वरूप कथनमें सदोषता प्रतीत होगी? मनुष्यों के नीचगोत्रका उदय नहीं है, बल्कि अहिंसा मेरी अल्प बुद्धिमें उपयुक्त विद्यानन्दस्वामीके स्वरूप मत्य शील संयमादिके पालनेके कारण उसके उच्चगोत्र कथनकी सदोषता समझमें नहीं भाई ।। का उदय है ।
भागे श्री अमृतचन्द्राचार्यका तस्वार्थमारका श्लोक आगे श्री विद्यानन्द स्वामीके इस प्रार्य म्लेच्छ लिखकर उसका अर्थ लिखा है कि "जो मनुष्य भार्यविषयक स्वरूप कथनको श्रीयुन पूज्य संपादकजी माहब खंडमें पैदा हो सब भार्य हैं जो म्लेच्छ वंडों में उत्पन ने सदोष बनलाया है जिसे बादको ५० कैलाशचन्द्रजी 'आदि' शब्दका रक्त वाच्य मान लेने पर भी शास्त्रीने भी अपने लेखमें (किरण ३ पृ० २०७ ) मदोष लक्षणोंकी मदोषना दूर नहीं हो सकेगी; क्योंकि नत्र म्वीकार किया है । परन्तु उसमें आया हुमा 'पादि' जिन्हें क्षेत्रार्य, जात्यार्य तथा कार्य कहा जायगा रन
ॐ आर्य और म्लेच्छ के लक्षणों में पड़े हुए 'श्रादि' मबमें उच्चगोत्रका उदय और अहिंमादिकका व्यवहार शब्दका जो वाच्य अहिंडा-मस्य-शील-मयमादि तथा बतलाना पड़ेगा और वह बतलाया नहीं जामकेगाहिमा-झट व्यभिचारादिक लेग्वक महाशयनं प्रकट किया आर्यग्बण्ड के मब मनुष्याको क्षेत्रार्य होने के कारण उच्च है उमका उल्लेख विद्यानन्दस्वामीने कहाँ किया ? गोत्री कहना होगा, मावद्य कर्म श्रााँको इधर कार्यकी लोकवार्तिकमें तो वह कहीं उपलब्ध होता नहीं । और दृष्टिम याद आर्य कहना होगा तो उधर हिमादिक न यही कहीं उपलब्ध होता है कि अहिमादिक व्यवहागेके व्यवहारों के कारण 'म्लच्छ' भी कहना होगा, यह विरोध विना उच्चगोत्रका और हिसादिक व्यवहारोंके बिना नीच आएगा । माथ ही, प्रत्येक आर्य के लिये जब अहिमागोत्रका उदय नहीं बन सकता । लक्षणोंमें 'श्रादि' शब्दकं दिक ब्रांका अनुष्ठान अनिवार्य होगा नब अार्यग्यण्डका द्वारा जिन दूसरे प्रायः अप्रधान कारणांका समावेश कोई भी अविरत मम्यग्दृष्टि श्रार्य नहीं कहला मकेगा किया गया है वे तो 'गोत्रोदय' से भिन्न हैं तब गोत्रका और चारित्रार्य तथा दर्शनार्य के भेद भी निरर्थक हो उदय उनपर अवलम्बित-उनके बिना न हो सकने जायगे, जिन्हें विद्यानन्दने पार्योके भेदोंमें परिगणित वाला-कैसे कहा जा सकता है ? इमलिये यह विचार किया है । इस तरह बहुत कुछ विरोध उपम्यिन होगा श्रीकवानिककी दृष्टिस कुछ ठीक मालम नहीं होता। तथा आर्य-म्लेच्छकी ममम्पा श्रीर भी अधिक जटिल
-सम्पादक हो जायगी।
--मम्पादक