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________________ १७२ अनेकाम्न [ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६ व भोग सामग्रीके पदार्थ वे हरण नहीं करते । म्लेच्छ केवल उनकी पशु-मुम्बाकृतिकी अपेक्षा कह दिया उनमें कोई दुराचार नहीं, मंदकपाय रूप सदाचार है गया है, पाचरणकी अपेक्षा वे उच्च गोत्री व सदाचारी फिर उन्हें नीच गोत्री कैसे समझा जावे ? है। अन्तरहीपजोंको नीच गोत्री व सर्वथा पशु मानना __ आगे लिखा है कि अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ केवल पूज्य बाबू सूरजभानजी माहबही की मान्यता मनुष्योंमें शामिल करने में ही मनुष्यों में ऊँच नीच हो सकती है, बहुमन तो जहाँ तक मैं समझता हूँ गोत्रकी कल्पना हुई है । अन्तरद्वीपजोंको म्लेच्छ ऐसी मान्यता वाला नहीं होगा। मनुष्यों में शामिल करनेसे ही मनुष्यों में ऊँच नीचगोत्रकी आगे लिखा है कि अफरीकाके पतित मनुष्य अपने सृष्टि नहीं हुई, बल्कि ऊँच नीचनाके भाव अनादिकालीन असभ्य व कुन्मिन व्यवहारोंको छोड़कर सभ्य बनने हैं और वे मनुष्यों में ही नहीं प्राणीमात्रमें पाये जाने हैं लग गये हैं। जब पूज्य बाब माहबने अपने लेम्बम और उन्हीके कारण अर्थान जीवोंके सहव्यवहार (धर्मा- अफरीकाकं मनुष्योंको पनिन अर्थात् नीचगोत्री मान चरण) व कुस्मिन म्यवहार (पापाचरण) के कारणही लिया और यह भी मान लिया कि वे अपने कुस्मिन मनुष्यों में क्या सारे जीवाम ऊँच नीच गोग्रता आई है, व्यवहारों एवं पापाचरणोंको छोड़कर सभ्य बन गये है वह बलात्कार किमीकी लाई हुई नहीं है। और न अ. अर्थात अपने नीचगोत्र जन्य कुन्मित व्यवहारों-दुरान्नरद्वीपजां म्जेरछ मनप्य नीचगोत्री ही हैं बल्कि वे तो चरणों को छोड़कर नीचगोत्रीय सभ्य एवं उच्चगाग्री कर्म भूमिजभी नहीं है । (क) भोग भूमिज है। शास्त्री- बन गय है, नब कोई गनुप्य नाचगोत्री नहीं है ऐसा में उनके ऊँच गोत्रका उदय बनलाया है *। उनको मानने व लिम्बनेका क्या अर्थ है वह मरा कुछ समझम ममस्त अन्तरद्वीप जोंके उच्चगोत्रका उदय कौनस नहीं पाया । बड़ी ही कृपा हो यदि वे उसे यमुनिन दि० जनशास्त्रीमें बतलाया है उनके नामादिकको रूपये समझानेका यब करें। यहाँ प्रकट करना चाहिय था । मुझे तो नहानक मालम इसके बाद श्रीविद्यानन्दम्बा मोके मनका उल्लेख है किसी भी दिगम्बर शास्त्रमे इस विषय का कोई स्पष्ट करते हुए पूज्य बाब माहबने लिखा है कि 'पार्यक उल्लेग्य नहीं है । प्रत्युन इसके श्रीविद्यानन्दाचार्य अन्न- उच्चगोत्रका उदय ज़रूर है और म्लेच्छ के नाचगोयका रद्धीपजीके दो भेद किये है-एक भोगाम समप्रगाध उदय अवश्य है । परन्तु अार्य होने के लिये और दुमग कर्मभूमि समप्राधि । भीगभूमि ममप्रगधि उच्चगोत्रके माथ 'पादि' शब्दपे दुसरे कारण भी श्रीअन्तरद्वीप न भागममियों के समान होने की तरह पर विद्यानन्दने ज़रूरी बनलाये हैं और वे दूसरे कारण है उच्चगोत्री हो मकन है; परन्तु कर्मभूमि सभप्रणाभि अन्न अहिंसा सत्य-शील-संयमादि व्रताचरण अर्थान् उनके रद्वीज भोगमिया नहीं हो मकतं 37को अायु, शरीर- इमका विवंचन मन 'अन्तर द्वीपज मनुष्य' नामके उम की ऊँचाई और वृत्ति ( प्रवृत्ति अथवा पानीविका) भोग लम्बम किया है, जो गत वर्षके 'अनेकान्त' की ६ ठी भूमियोंके ममान न होकर कर्मभूमियोंके समान होती है; किरण में प्रकाशित हुआ है । मालूम होता है लेग्वक और इमलिये उनके लिये उच्न गोत्रका निपम किमी महोदयका ध्यान उम पर नहीं गया है, उसे देग्वना तरह भीनही बन मकता । वे प्रायः जीन गोत्री होन: नाहिये।
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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