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वर्ष १. किरण २]
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
इदि गोदं" का भाव पृथक् है । "भवमस्सिय णी- नहीं है कि बिना मार्योंका प्राचार पालन किये या च" पदमे नरफ तिपंचमवके सब जीव मीच व देव बिना सकस संघमी हुए भी वे भार्य और उप गोत्री हैं, मनप्य सब उंचगोत्री हैं यह भाव ध्वनित नहीं होता, बल्कि उसमें स्पष्ट लिखा हुमा है कि वे मातृपकी बल्कि यह ध्वनित होता है कि नीचता व उचता प्रत्येक अपेक्षा म्लेच्छ अर्थात् नीच गोत्रो ही हैं। हां, वे भव प्राश्रित है अर्थात् सारे संसारके जो चार प्रकारके भार्योका भाचार पालन करनेसे या पालन करते रहनेसे देव, मनाम नारकी, निपंच जीव हैं उनके प्रत्येक भवमें नीच गोत्री (म्लेच्छ) में उच गोत्रा हो सकते हैं। नीचता व ऊँचता होती है. अतः उन मभीके नीचव भागे लिखा है कि 'कुभोगभूमियां (मनुष्य) पशु उंच दोनों गोत्रोंका उदय है। प्रत्येक भवमें नीता वही है इन्हें किसी कारणमे मनुष्य गिन लिया है, परन्तु उंचना होने से यह प्रयोजन है कि प्रत्येक जीव माने इनका प्राकृनि प्रवृत्ति, और लोकपूजिन कुलों में जन्म न दुराचरण व सदाचरणमे नीच व ऊँच कालाता है। होनेमे इन्हें नीच गोत्री ही समझना चाहिये। परन्तु
भागे लिखा है कि गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी गाथा मारा शरीर मनुष्यका भौर मुख केवन पशुका होने २८५ में मनुष्यगनि और देवगनिमें उच्च गोत्रका उदय ही वे सर्वथा पशु नही कहला सकने, उन शासमें बनलाया है. वह नो ठीक है परन्तु "उच्चदी गा. मुखाकृति भिन्न होनेसे ही कुमानुष और म्लेच्छ कहा दंत्र" हम पर मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय सर्वथा है. वे मंदकषाय होते हैं मर कर देव ही होते हैं, मंदहै ही नहीं ऐसा प्रमाणित नहीं होना।
कपाय होनेसे सदाचरणीही कह जायंगे और सदाचरणी आगे लिखा है कि म्लेच्छ खण्डके सभी छ होने उस गोत्रीही कह लावेंगे और है । उमकी प्रवृत्ति पकल मंयम ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वे उचगोत्री है, मंदकषाय रूप होनेसे उच्च ही है। लोक पजिन कुल परन्तु म्लेच्छ लोग जब भार्यम्बरहमें भाकर पार्योंका और अपजिन कुल कर्म भूमिमें ही होता है, वहाँ प्राचार पालन करेंगे व मकलमंयम ग्रहण का लगे कुभोग भूमि है, वहां मम ममान हैं, लोक पूजिन व तब वे उप गोत्री हो जायेंगे, ७ इममें पहले वे च्छ- अपजिनका भाव वहां नहीं है । लोकपूजित कुल में खण्ड में रहें व आर्यखण्डमें भाकर रहें, बिना मार्योंका जन्म होमेमे उच गोत्री व अजित कुलमें अम्म होने में प्राचार पालन किये उच्च गोत्री न होकर नाच गोत्री नीच गोत्री कर्मभूमिमें ही माना जाना है। कुभोग हो हैं । श्री जयधवन और श्री बधिमारका जो मि या मोगभूमिमें नहीं माना जाता । बल्कि भोग प्रमाण दिया है उसपे इतना ही सिद्ध है कि म्लेच्छ भूमियां उपचगोत्री ही होते है जिनको पूज्य बापू माहब लोग सकल संयमको योग्यता रखते हैं, वे सकल संयमके ने भी अपने लेख में स्वीकार किया है। वे नीच गोत्री पात्र हैं, उनके संयम प्राप्तिका विरोध नहीं है, उनमें नहीं होते । और गोम्मरमार कर्मकायाकी गाथा संयमोपलब्धिकी संभावना है। उम प्रमाण यह मिन् नं० ३.२ "मणुमोयं वा भोगे दुव्भगचरणी च
यदि मकल मयम ग्रहण करने के बाद उधोगी मढाणानय" माविमें भी भोगमियाँ ममयों में हा तो यह कहना पड़ेगा कि नीच गोत्री मनुष्य भी उपक्ष गोत्रका उदय बसनाया है। उन कुमानुष लोगों मनि हो मकते हैं।
-मम्पादक में व्यभिचार नहीं, एक सरेकी स्त्रीवकामकी बस्त