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________________ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निवास सं०२४६६ मगुवे ओपो थावरतिरियादावदुगएयवियलिंदी। अपने लेखमें उसे किस प्रकार अस्वीकार किया,यह बान साहणिदराउतियं बेगुञ्चियकपरिहीणो ।।२६८|| समझानी चाहिये अथवा मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय अर्थात् सब मनुष्यों में उदयोग्य १२२ प्रकृतियों में स्वीकार करना चाहिये । अनुभवमें तो नीच व उच स्थावर, तिर्यच गति, भानप आदि २० प्रकृतियाँ कम दोनों गोत्रों के भाव एकेन्द्रियमे लेकर पंचेन्द्री देव मनुष्य करनेमे १०२ का उदय है। इनमें नीचगोत्र कम नहीं नारकी व नियंच तक सब जीवोंके अपने प्रत्येक सदा किया, अतः मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय है। चरण व दुराचरण के साथ साथ प्रति समय माते रहते मिच्छमपएण छेदो अमिम्म मिच्छगादितिसु अयदे हैं और गोम्मटमारकी १३ वी गाथाके अनुसार मारे विदियकमायणराण दुब्भगऽणादेजप्रजमय ।।२९९ संसारके जीवोंपर नीच व ऊँच दोनों गोत्र जीवोंके मदा अर्थान-उन मनुष्यों में मिध्यान्वादि तीन गुणस्था- चरण व दुराचरण के आधार पर घटिन भी होने हैं। नियोंके मिथ्यात्व, अपर्यास, अनंतानुबंधीकी ४ चौकी तथा नीचगोत्री उंचगोत्रका और ऊँचगोत्रमे नीचगोत्रका भादि प्रकृनियोंकी उदय म्युरिछत्ति होती है। तीसरे अपने सदाचरणोंस व दुराचरणोंस संक्रमण भी होजाता गुग्गस्थान तक नीचगोत्रका उदय म्युछित्ति नही हुई, है, ऐमा मैंने कभी जैनमित्रमें पढ़ा है। इसलिये मान, धनः उसका उदय है। प्रनिष्ठा, गज्य. बी आदिके कारण किमी दुराचारीको दम नदियकमाया णीचं एमेव मरणुममामएणं। जन्म भरके लिये उचगोत्री और दरिद्रता, नीची भाजीपजत्तं वि य इत्थी वंदाजतिपरिहीगी ॥३०॥ विका श्रादिकं कारण किस सदाचारी धर्मान्माको जन्म अर्थान-पाँचवें गुणस्थानमें प्रत्याख्याना चौकड़ीव भरके लिये नीचगोत्री मान बैठना परासर अन्याय व नाचगोत्रको उदय व्युच्छित्ति होती है और पर्याप्त मनु- पाप बंधका कारण आन पड़ता है। व्यों में पहली १०२ में ना वेद व अपर्याप्ति कम करनेमे भागे पूज्य बाबू माहबने मभी मनुष्योंको उप २०० का उदय है । इस प्रकार पंचम गुणस्थानमें नीच गोत्री बनलाने हुए लिखा है कि:-गोम्मटमार कर्मकाण्ड गोत्रकी म्युछित्ति हुई है, अतः यहां तक पर्याप्त मनुप्यके की गाथा १८ में साफतौरसे बतलाया है कि नीच ऊंच नीचगोत्रका उदय पाया जाता है। गोत्र भवोंके अर्थात् गतियोंके माश्रित है और जिमम मणुमणिएल्थीमहिदा तित्थयराहारपरिमसंढणा यह ध्वनिन किया है कि नरक-भव तिथंच भबके सब पुरिणदग्व अपुरण मगाणुगदिश्रागंणेयं ॥३८१ जीव नीचगोत्री और देवभव व मनुष्यभव वाले सब अर्थात् १०० प्रकृनियों में स्त्री वेद मिलाकर उदय- उचगोत्री हैं। उम गाथाका वह अंश इस प्रकार है:-- योग्य प्रकृतियोमेमे तीर्थकर, आहारक युगल, पुरुष वेद, भव मस्सिय णीचुवं इदि गोदं। नपुसक वेद ये पांच प्रकृतियां कम करने में १६ का उदय इस गाथा वाक्यका तो नीच-उंचगोत्र गतियोंके आश्रित मनुष्यणीके हैं। यहां भी नीचगोत्र कम नहीं हुमा, अतः है' यह अर्थ नहीं लिखा है बल्कि यह अर्थ लिखा है पर्याप्त बीके नीचगोत्रका उदय वर्तमान है। कि 'नीचता व ऊंचता भवके माश्रित है।"इदि गोद इस तरह पर जब मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय ये शब्द गाथाके तीसरे चरणके न होकर चौथे चरणके सिद्धान्त में यमनाया गया है, तब पूज्य बाबू साहबने है, अतः “भवस्सिय णीचञ्च' इस पदके भावमे
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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