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________________ १७४ अनेकान्त [ मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ होनेवाले शकादिक हैं वे सब म्लेच्छ हैं और जो अन्तर- तथा जानी हुई सारी दुनियाको पूज्य बाबू साहबने द्वीपोंमें उत्पन्न होते हैं वे भी सब म्लेच्छ ही हैं।" अपने लेखमें आर्यखंड ही स्वीकार किया है। फिर वह श्लोक यह है : शकादि या यवनादिकोंको म्लेच्छखंडोदभव म्लेच्छ मानआर्यखंडोद्भवा आर्या म्लेच्छाः कचिन शकादयः। नेका क्या प्रयोजन है सो समझमें नहीं आया कृपया म्लेच्छखंडोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ समझाना चाहिये। इस श्लोकका उपर्युक्त अर्थ मुझे रुचिकर नहीं व म्लेच्छ नहीं रहंगे; क्योंकि विद्यानन्दाचार्यने कर्मलगा, यदि इसका यह अर्थ किया जाय कि 'आर्यखंड में भमिन और अन्तरद्वीप जके अतिरिक्त म्लेच्छोंका कोई उत्पन्न होनेवाले आर्य हैं तथा आर्यखंड में ही उत्पन्न तीमरा भेद नहीं किया है। आर्यखण्ड और म्लेच्छहोनेवाले कितने एक शकादिक म्लेच्छ भी हैं, और बण्ड दोनों ही कर्मभमि होनस 'कर्मभूमि ज' म्लेच्छोमें म्जेच्छ खंडोंमें उत्पन्न होनेवाले म्लेच्छ है तथा अन्तर- दोनो खण्डीक मलेच्छोका ममावेश हो जाता है। द्वीपज भी म्लेच्छ हैं, तो क्या हानि है ?- यवनादयः' पदमें प्रयुक्त हुया 'श्रादि' शब्द यवनों के __ आगे लिखा है कि श्री विद्यानन्द प्राचार्यने यवना. अतिरिन दोनों खण्डोंक शेप मब म्लेच्छोका भग्राहक दिकको म्लेच्छग्वंडोद्भव म्लेच्छ माना है । परन्तु है। अन. माम' का यहाँ मात्र 'आर्यग्बण्ड' अर्थ श्लोकोंसे तो ऐसा प्रतीत नहीं होता; श्री अमृतचंद्रा- करना ठीक नहीं है। -सम्पादक चार्यने भी शकादिकोंको आर्यवंडोद्भव म्लेच्छ ही वर्तमान शास्त्रीय पैमाइश के अनुसार जानी हुई माना है और श्री विद्यानन्दाचार्यने भी "कमभूमिभवा- दुनिया 'पार्यग्वण्ड' के अन्तर्गत हो जाती है, इसमें ना म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः" श्लोकम यवनादिकोंको विवाद के लिये स्थान नहीं है । अब र शक-यवना:कर्मभूमि (आर्यवंड )में होने वाले म्लेच्छ माना है। की विद्यानन्दकं मनानुमार म्लेच्छग्वण्टागव तच्छ ___ इभम कोई न नहा. बालक ना ! अर्थ बनलाने अथवा माननकी बात, वह 'यवनादयः' पाक समुचित प्रकाश होता । ननांचे द्वितीय वर्ष के 'अने- याच्यको पर्ण रूपमे अनुभव न करने आदिको किमी कान्त' की ५ वी किरणम पृ. २७६ पर मैन मा ग़लनीका परिगाम जान पड़ता है । विद्यानन्दाचार्यन अर्थ करके उमका यथ: स्पष्टीकरण किया है और माय म्लेच्छन्दण्डाद्य तच्छाका कोई अनग उल्लेख नही ही प०कैलाशचन्द्र वा शास्त्रीकी इस मान्यताका ग्वण्टन किया है, इमलिय यवनादयः' पदम उन्हाका ग्राशय भी किया है कि 'यायग्वणोदय कोई गछ होत ही ममझ लिया गया है। इसी ग़लनीक आधार पर नहीं:शकादिकको किमीभी प्राचायने प्रायवएटम चार्थमारके उक्त योकका अर्थ कुछ ग़लत हुन। उत्पन्न होने वाले नहीं लिग्वा, विद्यानन्दाचार्यन भी जान पड़ता है । वैपा अर्थ करके ही श्रीमान बाब मरन यवनादिकको म्लेच्छग्वण्डोद्भव' म्लेच्छ बतलाया है।' भाननीने अपने लेख में विद्यानन्दाचार्य और अमतचन्द्रा -सम्पादक चायके कथन का एक-वाक्यता घोषित की है, जो दुमग कर्मभूमि' का अर्थ यदि आर्यग्वण्ट ही किया अर्थ करने पर और भी अच्छी तरह से घोषित होती है। जायगा नो म्लच्छखण्टोंके अधिवामी छूट जायंगे -सम्पादक
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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