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________________ ३, किरण १] भगवान महावीर और उधका उपदेश मार्गका उपदेश दिया. निमम वह कुछ कुछ रागद्वेषको खगब होती है-उन्नति करनेके बदले और ज्यादा कम करते हुए अपने विषय कषायोंको भी पूरा करते नीचेको गिरती है । इस कारण जितना भी धर्मसाधन रहें और उन्हें रोकते भी रहें। इस तरह कुछ कुछ हो वह अपनी इन्द्रियोंको काबमें करनेके यास्ते ही हो। पाबन्दी लगातं लगाते अपने विषय कषायोंको कम अधिक धर्म-माधन नही हो सकता है तो थोड़ा करों, करते जावे और रागद्वेषको घटाते जावें । जिन लोगोंने रागदेष बिल्कुल नहीं दबाये जा सकते हैं तो शुभ भाव हिम्मत बांधकर अपनेको विषय कषायोंके फदेसे छुड़ा ही रखो, मबको अपने ममान ममम कर सब ही का लिया है, रागद्वेषको नष्ट करके कर्मोंकी जंजीरोंको भला चाहो । दया भाव हृदय में लाकर मबही के काम तोड़ डाला है और अपना असली ज्ञानानन्द स्वरूप में प्रायो । किमीम भी देष और ग्लानि न करके सब हामिल कर लिया है ! उनकी कथा कहानियाँ मुनकर, ही को धर्म मार्ग पर लगायो। सामारिक जायदादकी उनकी प्रतिष्ठा अपन हृदयम बिठाकर खद भी हौसला तरह धर्म बाप-दादाकी मीगसमें नहीं मिलता है और पकड़े और विषय कपायों पर फतह पाकर भागे ही नमाल-असबाबकी तरह किमीकी मिलकियत ही हो श्रागे बढ़ते जावे । यह ही पूजा भक्ति है जो धर्मात्माओं सकता है । तब कौन किमीको धर्मके जानने या उसका को करनी वाजिब है। और जो पूरी तरहसे विषय साधन करनेसे रोक सकता है ? जो रोकता है वह अपने कषायों को त्याग सकते हैं, राग-द्वपको दबा मकते हैं को ही पापोम फैमाता है। घमण्डका मिर नीचे होता उन्हें गृहस्थदशा त्याग कर मुनि हो जाना चाहिये। है। जो अपनेको ही धर्मका हकदार ममझता है और दुनियाका मब धन्धा छोड़कर अपनी सारी शक्ति अपनी दुमरोंको दुर-दुर-पर-पर करता है वह श्राप ही धर्मसे अात्माको राग-द्वेपके मैलम पवित्र और शुद्ध बनाने अनजान है और इम घमण्ड के द्वारा महापाप कमा और अपना ज्ञानानन्दम्यरूप हामिल करने में ही लगा रहा है। धर्मका प्रेमी तो किमीम भी घगा नहीं करता देनी चाहिये । है। घगा करना तो अपने धर्म श्रद्धानमै लचिकिमा वस्तु-बभावके जानने वाले मच्चे धर्मात्मा अपना नामका दूपण लगाना है। मच्चा धर्मात्मा तो सब ही काम दुमराम नहीं लिया चाहने । वह दीन हीनाकी जीवों के धर्मात्मा हो जाने की भावना माता है। नीचस तरह गिड़गिड़ा कर किसीम कुछ नहीं मांगते हैं । हॉ, नीच श्रीर पापीम पापीको भी धर्मका स्वरूप बताकर जिन्होंने धर्म-माधन करके अपन अमली म्वरूपको धर्मम लगाना चाहता है । धर्म तो वह वस्तु जिमका हामिल कर लिया है, उनकी श्रद्धा और शनि अपने श्रद्धान करनेम महा इत्याग चाण्डाल भी देयाम पजिन हृदयंम बिठा कर खद भी वैसा ही माधन करनेकी चाह हो जाता है और अधर्मी स्वर्गीका देवभी गदगीका अपने मनम TT जमाते है। धर्मका माधन नी गग- कीड़ा बन कर दुःख मठाना है। इम ही कारण बोर द्वेष को दूर करने और विषय-कपायांस छुटकाग पानके भगवानने नो महानाच गंदे और महा हत्या माम भक्षी वास्तं ही होता है, न कि उल्टा उन्हींको पोषनके पशुओंको भी अपनी मभामें जगह देकर धर्म उपदेश वास्ते । इमही कारगा वीर भगवानका यह उपदेश था सुनाया। धर्मका यह ही तो एक काम है कि वह पापी कि कोई गृहस्थी हा या मुनि धर्मात्माको तो हरगिज़ भी को धर्मात्मा बनावे, नो उमे ग्रहण करे वह ही उन्नति किमी भी धम-माधनके बदले किसी मामारिक कार्यकी करने लग जावे, नीचेस ऊंचे चढ़ जावे और पज्य मिद्धिकी इच्छा नहीं करनी चाहिये । अगर कोई ऐमा बन जावे | धर्म तो पापियोंको ही बताना चाहिये, नीचों करता है तो मब ही करे करायेको मेटकर उल्टा पापोंमें से उनकी नीचता कुड़ाकर उनको ऊपर उमाग्ना फंसता है। धर्मसेवन तो अपनी प्रात्मिक शुद्धिके वास्ते चाहिये । जो कोई महानीच-पापियोंको धर्मका स्वरूप ही होता है न कि सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति के वास्ते, बना कर उनसे पाप छुड़ाने की कोशिश करनेको अच्छा जिससे श्रात्मा शुद्ध होने के स्थान में और भी ज्यादा नही समझता है, पापसे घृणा नहीं करता है, कठोर
SR No.538003
Book TitleAnekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size80 MB
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